समाधि सुखमां” आवी दशा ज्ञानचेतना वडे पमाय छे. निष्कर्मदशा एटले ज्यां राग
द्वेष नथी, ज्यां हर्ष–शोक नथी, कर्मचेतना के कर्मफळचेतनानो ज्यां अभाव छे, ज्यां
सहज सुखनो ज अनुभव छे, आवी निष्कर्म अवस्थाने ज्ञानचेतनावडे पामीने
सदाकाळ परम आनंदनो भोगवटो करो–एम उपदेश छे. त्यां जे सुख छे ते स्वसत्तामां
ज छे–अभिन्नसत्तामां छे, पोतामां ज पोतानुं सुख छे एटले तेने एकसत्तानुं सुख कह्युं
छे. पर द्रव्यनी सत्ता ते तो भिन्नसत्ता छे, ते भिन्नसत्तामां आत्मानुं सुख छे ज नहि.
भिन्नसत्तामां जे सुख माने छे तेने कदी सुख मळतुं नथी. भिन्नसत्तामां सुख माने ते
भिन्नसत्ता सामे जोया करे, पण स्वसत्ता सामे जुए नहि ने तेने सुख मळे नहि. सुख
तो स्वसत्तामां छे. ज्ञानचेतना वडे जे स्वसत्ताने अनुभवे छे ते ज स्वसत्ताना सुखने
अनुभवे छे, तेनी पर्याय सुखना प्रवाहमां तन्मय थई जाय छे, एटले सादि–अनंतकाळ
सुधी ते सुखने ज पीधा करे छे.
अनुभवनो काळ एनाथी अनंतगुणो छे, –केमके भूतकाळ करतां भविष्यकाळ अनंत
गुणो छे, भावथी तो मोक्षसुख अनंतुं छे ने काळथी पण ते अनंतु छे; हवे आवा अनंत
मोक्षसुखने साधता केटलो काळ लागे? अनंत काळना मोक्षसुखने साधता शुं अनंतकाळ
लागतो हशे? –ना; साधकदशानो काळ असंख्य समयनो मर्यादित ज छे.
असंख्यसमयनी साधकदशाना फळमां अनंतकाळनुं मोक्षसुख हे जीव! तुं पीधा ज कर!
हवे तारुं सुख कदी खूटवानुं नथी. अरे, भोगमां काळ गाळ्यो ते तो व्यर्थ गयो, तेना
फळमां तो दुःख सिवाय कांई न मळ्युं; हवे हे जीव! चैतन्यना अनुभव वडे मोक्षसुखने
साध. थोड काळना प्रयत्नमां तुं अनंतकाळनुं सुख पामीश.