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थयुं; त्यां अनंत गुणवाळो चैतन्यरत्नाकर ऊछळ्यो.
कार्यपणुं न रह्युं; विभुत्वनुं शुद्ध कार्य प्रगट्युं त्यां अनंतगुणो पर्यायमां निर्मळपणे
व्याप्या; प्रकाशशक्तिनुं कार्य प्रगट्युं त्यां बधा गुणोनुं प्रत्यक्ष संवेदन पर्यायमां प्रगट्युं.
आम बधा गुणोनुं कार्य सम्यक्त्व थतां पर्यायमां आवे छे. एने श्रीमद् राजचंद्रजीए
‘सर्व गुणांश ते सम्यक्त्व’ एम कह्युं छे. कर्ता–भोक्ता, आनंद, प्रभुता, वीर्य–ए बधा
गुणोनी प्रतीत थतां ते बधानुं कार्य पर्यायमां आव्युं छे.
करतांय जेना स्वभावनी विशाळता, एवा आत्मानी प्रतीत करतां तो आखो प्रभुतानो
दरियो ऊछळे छे; प्रभुतानुं कार्य प्रतीत साथे ज प्रगट थाय छे; वेदनमां अनंतगुणनी
पर्याय प्रगटपणे आवी छे. ज्ञानचेतना अंतरमुख काम करे छे, तेमां अनंतगुणना
निर्मळ अंकुरा फाटया. आवुं सम्यग्दर्शन थतां केवळज्ञान न थाय एम बने नहि.
केवळज्ञाननी जेम ज सम्यग्दर्शन अप्रतिहत स्वभावने प्रतीतमां ल्ये छे. चारित्रगुणनो
पिंड प्रतीतमां आवतां ते प्रतीतनी साथे चारित्रगुणनो अंश पण प्रगट्यो छे. आवी
प्रतीत परना लक्षे न थाय. अनंतगुणना पिंडरूप जे द्रव्यभगवान तेना ध्येये
अनंतगुणनुं कार्य प्रगटी जाय छे. अनंतगुण कारणपणे तो छे, पण तेनी सन्मुख थईने
तेने कारण बनाव्या वगर निर्मळ कार्य आवे नहि.
आगम भेद सुउर वसे’ वस्तु एना हाथमां आवी गई. भले कदाच विशेष पडखानो
खुलासो करतां न आवडे, पण स्ववस्तुने एणे पकडी लीधी छे. स्ववस्तुनो अपार
वैभव एना हाथमां आव्यो छे.
अमूर्तगुण, निष्क्रियत्वगुण वगेरे अनंतागुणनो आखो समुदाय एक साथे प्रगट्यो