: ५२ : आत्मधर्म : मागशर : २४९२
ज्ञानी अनुभूति.जेमां बीजाुं उत्थान नथी
(कळशटीका पृ.–६९ ना प्रवचनमांथी)
* पहेलांं ‘रागनो हुं कर्ता’ एवी रागना कर्तृत्वनी बुद्धिमां अटकतो हतो
तेथी मिथ्यात्व हतुं, ने ज्ञाननी अनुभूति न हती.
* हवे ‘आत्मा रागनो कर्ता नथी, राग रहित शुद्धस्वरूपी आत्मा छे ’
एवा शुद्धनयनुं श्रवण कर्या पछी, ‘हुं रागनो कर्ता नथी’ एवा अकर्तृत्वना
विकल्पनो कर्ता थईने तेमां अटक्यो, तो ते पण मिथ्यात्व छे, ने तेमांय ज्ञाननी
अनुभूति नथी.
* भाई, सहज ज्ञानमां अकर्तापणानी वृत्तिनुंय उत्थान क््यां छे?
अकर्तापणानी वृत्तिमां तन्मय थईने रोकाणो ते ‘ज्ञान’ मां आव्यो नथी,
विकल्पमां ज ऊभो छे.
जेम रागना कर्तापणाना विकल्पमां तन्मयता ते मिथ्यात्व छे.
तेम रागना अकर्तापणाना विकल्पमां तन्मयता ते मिथ्यात्व छे.
* ज्ञानमां रागनुं अकर्तापणुं छे–ए वात तो साची छे. पण ते अकर्तापणुं
कांई विकल्पनी अपेक्षा नथी राखतुं. अकर्तापणुं छे ते, अकर्तापणाना विकल्पथी
जुदुं ज छे. ज्ञाननी स्वानुभूतिमां जेम कर्तापणानो विकल्प नथी तेम
अकर्तापणानोय विकल्प नथी.
* ज्ञानपरिणति ज्ञानभावरूप थईने परिणमी त्यां कोई विकल्प तेमां
नथी. आवी ज्ञानपरिणति परम आनंदरूप छे. आनंदमय ज्ञानपरिणमन थतां
कर्तापणुं छूटे छे, परंतु ‘अकर्ता छुं’ एवा विकल्पवडे कांई कर्तापणुं नथी. रागनो
हुं अकर्ता छुं’ एवा विकल्पमां अटक्यो तो ते पण ‘रागनुं कर्तृत्व’ ज छे.
* चैतन्यनी अनुभूति थतां सत्स्वभाव सत्स्वभावपणे ज
अनुभवायो, त्यां बीजी कोई वृत्तिनुं उत्थान तेमां नथी. आवी निर्विकल्प
स्वानुभूति ते परम सुख छे. सम्यग्दर्शन आवी निर्विकल्प प्रतीतरूप परिणम्युं छे.
* स्वानुभूतिमां रागनुं कर्तापणुं तो छे ज नहि; अकर्तापणुं छे–पण तेनो
विकल्प नथी. विकल्पथी पार स्वानुभूति छे; विकल्प स्वानुभूतिथी बहार छे.