: ४ : आत्मधर्म : मागशर : २४९२
मारुं ज्ञान
[परमात्मप्रकाश गाथा (पर) उपर प्रवचन]
अहो, ज्ञानस्वरूपनी भावना भावे तो तेमां क््यां दुःख छे?
ज्ञानने तो आनंदनी साथे तन्मयता छे, पण ज्ञानने दुःख साथे
तन्मयता नथी. ज्ञानमां दुःखनो प्रवेश ज नथी. आवुं ज्ञान ते ज हुं छुं
एवुं स्वसंवेदन करतां परम आनंद स्फूरे छे.
आ आत्मा देहथी भिन्न ज्ञानस्वरूप छे; एटले देह आत्मानो नथी, आत्मानुं तो
‘ज्ञान’ छे. ज्ञानमां आत्मा तन्मय छे. ‘ज्ञान’ कहेतां ज्ञान साथे आनंद आत्मानुं
स्वरूप छे, पण ‘ज्ञान’ कहेतां तेमां कांई भेगो राग नथी आवतो. राग आत्मानुं खरूं
स्वरूप नथी, ज्ञान ज आत्मानुं तन्मय स्वरूप छे.
ज्ञानमां तन्मय रहीने आत्मा परने जाणे छे, पण कांई परमां तन्मय थतो
नथी. परने जाणतां परमां तन्मय थई जतो होय तो तो परनां सुखदुःखनी पण वेदना
आत्माने थाय; ने नरकनां दुःखोने जाणतां केवळी भगवान पण दुःखी थई जाय.–पण
एम नथी. केवळज्ञानी प्रभु तो पोताना अतीन्द्रिय–आनंदमां ज तन्मय रहीने विश्वने
जाणे छे. ज्ञान, पोताना आनंदमां तन्मय छे पण परमां तन्मय नथी, संयोगमां तन्मय
नथी, रागमां तन्मय नथी.
नारकीनो जीव पण त्यांना संयोगमां तन्मय नथी एटले तेने त्यांना संयोगनुं
कांई दुःख नथी पण पोताना राग–द्वेषनुं ज दुःख छे. धर्मी जाणे छे के हुं तो ज्ञान छुं,
मारुं तो ज्ञान ज छे; संयोग मारो नथी, देह मारो नथी, ने राग पण मारो नथी. एम
बधाथी जुदापणे हुं मारा ज्ञानमां ज तन्मय छुं. ज्ञाननो मने कदी वियोग नथी. बधा
संयोगथी ने रागथी जुदा रहीने तेने जाणवानी मारी ताकात छे; ज्ञान साथे आनंदनी
तन्मयता छे, पण परनी तन्मयता नथी. परनुं वेदन मारा ज्ञानमां नथी, एटले परना
सुख–दुःखनुं वेदन मने नथी. हुं तो ज्ञान छुं, मारुं तो ज्ञान छे.–एम धर्मीजीव पोताने
ज्ञानपणे ज अनुभवे छे.
अहो! ज्ञानस्वरूपनी भावना भावे–तो तेमां क््यां दुःख छे? ज्ञानमां दुःखनो
प्रवेश ज नथी. ज्ञाननी सीमामां परनो के दुःखनो प्रवेश नथी.