Atmadharma magazine - Ank 268
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : माह : २४९२
एक जीव चक्रवर्ती थईने पछी केवळज्ञान पामे ने बीजो जीव सामान्यपणाथी
केवळज्ञान पामे, पण बंनेनुं सुख सरखुं छे. एक जीव सामान्य केवळीपणे मोक्ष पामे,
बीजो जीव तीर्थंकर थईने मोक्ष पामे, तेथी कांई बंनेना आनंदमां जराय फेर नथी,
आनंद बंनेनो सरखो छे. अहो, अमे अमारा स्वरूपमां ज्यारे लीन थईने छीए त्यारे,
दीक्षाकाळे तीर्थंकरोए जेवो निर्विकल्पआनंद ध्यानमां अनुभव्यो तेवो ज आनंद अमे
अनुभवीए छीए. चार ज्ञानधारी जीव जेवा आनंदने अनुभवे तेवा ज आनंदने मति
श्रुतज्ञानी पण स्वानुभवमां अनुभवे छे. आ रीते आत्माना आनंदने अनुभवता–
अनुभवता धर्मी जीव मोक्षने साधे छे. अज्ञानीने एवा आनंदना नमुनानी पण खबर
नथी सम्यग्दर्शन थतां एवा आनंदनो नमुनो अनुभवमां आवी जाय छे, सिद्धना ने
एना आनंदनी एक ज जात छे. आवो जेने अनुभव छे ते ज जीव सुखी छे.
एक मंत्र
शांतिनुं धाम छे. अनित्यताना ने अशांतिना बनावो तो जगतमां
सदाय बनी ज रह्या छे. हालमां रोज–बरोज झडपभेर एवा मोटा
बनावो बनी रह्या छे के जे साराय राष्ट्रने असर करे छे ने
संसारनुं असारपणुं तथा क्षणभंगुरपणुं जोरशोरथी प्रसिद्ध करी
रह्या छे,–जेनुं स्वरूप विचारतां संसारमांथी मुमुक्षुनुं चित्त एकदम
हटीने स्वरूपनुं शरण शोधवा तत्पर बने छे. संसारनुं आवुं
अस्थिर स्वरूप जाणीने संतो वेगपूर्वक वैराग्यपंथे वळ्‌या.....ने
निजस्वरूपमां ढळ्‌या. दुनियाने
‘जगदस्थिरम्’ नो मंत्र आपीने
समजाव्युं के, आकाशमां के पाताळमां जीव मरणथी बची शकतो
नथी.....मरणथी बचावनार एक ज वस्तु छे...... अने ते
रत्नत्रयधर्म.