तावत् यावत् परात्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते।।१३०।।
छे. जे हजी तो एम माने के देह–वाणी ते हुं छुं, तेनां काम हुं करुं छुं,–ते तो देहथी भिन्न
आत्माने क््यारे ध्यावे? ने तेने समाधि के मोक्षमार्ग क््यांथी थाय? ते तो परमां लीन
थईने संसारमां रखडे छे.
ते कोईनी क्रियानो करनार नथी, आत्मा तो पोताना ज्ञान–आनंदस्वरूप छे.–आ प्रमाणे
जेना श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रमां परथी भिन्न चैतन्यतत्त्वनो स्वीकार छे ते जीव मुक्ति पामे
छे. अने परद्रव्योने एकत्वबुद्धिथी जे ग्रहण करे छे ते संसारमां रखडे छे.
असमाधि ज रहे छे. ज्ञानी तो जाणे छे के देह–मन–वाणी ते कोईनी साथे मारे कांई
लागतुं वळगतुं नथी; तेनुं गमे ते थाओ, हुं तो ज्ञान–आनंदस्वरूप ज छुं–आवा
भानमां चैतन्यस्वरूपना आश्रये धर्मीने समाधि थाय छे. शरीरमां रोगादि आवे के
निरोगी रहे ते–बंनेदशामां हुं तो तेनाथी जुदो ज छुं–एम भिन्नता जाणीने ज्ञानी
पोताना चैतन्यस्वभावनी ज भावना करे छे. अजीवना एक अंशने पण पोतानो
मानता नथी; एटले ते तो चैतन्यस्वभावमां लीन थईने मुक्ति पामे छे. आ रीते
भेदज्ञानने मोक्षनुं कारण जाणीने हे जीव! तुं निरंतर तेनो उद्यम कर.ाा ६१ाा
भिन्न आत्मानुं भेदज्ञान केवुं होय ते द्रष्टांतथी समजावे छे; जेम शरीर अने वस्त्र बंने
जुदा छे, तेम आत्मा अने शरीर बंने जुदा छे; धर्मीने वस्त्रनी माफक आ शरीर पोताथी
प्रगट भिन्न भासे छे.–ते वात चार गाथद्वारा बहु सरळ रीते समजावे छे–
धने स्वदेहेप्यात्मानं न धनं मन्यते बुधः।।६३।।