: ३४ : आत्मधर्म : माह : २४९२
छे, तेम पोते मध्यम क्षेत्रवाळुं होवा छतां केवळज्ञान अनंत अलोकना क्षेत्रने जाणी ल्ये
छे, एवी बेहद अचिंत्य ताकात तेने खीली गई छे. आवा बेहद सामर्थ्यवाळा
केवळज्ञाननो निर्णय करनारुं ज्ञान पण बेहद सामर्थ्यवाळुं–अतीन्द्रिय थई जाय छे. ते
ज्ञान परभावमां क््यांय अटकतुं नथी.
(८३) प्रश्न:– विकल्पने तोडवानी विधि शुं छे?
उत्तर:– प्रज्ञावडे ज्ञाननुं वेदन ते ज विकल्पने तोडवानी विधि छे. भेदज्ञाननी
उत्पत्तिना काळे ज्ञान पोताना स्वरूपमां वळी गयेलुं छे; ते काळे विकल्पनो अभाव छे.
ज्ञाननुं लक्षण ने रागनुं लक्षण ए बनेनां लक्षणनी ओळखाणवडे भिन्नता
जाणीने, संधि छेदीने ज्ञान अंर्तस्वरूपमां वळ्युं ए ज अपूर्व अनुभूतिनो ने
सम्यक्त्वनी उत्पत्तिनो काळ छे. संधि छेदनारुं आ ज्ञान अतीव तीक्ष्ण छे–घणुं ज
उपशांत–धीरुं–एकाग्र थईने अंदरमां वळ्युं छे.
भवने छेदनारुं आवुं ज्ञान, भेदज्ञानना निरंतर अभ्यासवडे प्रगट करवुं ते ज
विकल्पने तोडवानी विधि छे.
दिनरात तेओ एने ज ध्येयपणे ध्यावे छे.
“सुखधाम अनंत सुसंत चही,
दिनरात रहे तद् ध्यान महीं”
(८प) प्रश्न:– आत्माना सर्व प्रदेशे कर्मो बंधायेला छे–तेनी साबिति शुं?
उत्तर:– केमके कर्मना बंधनुं कारण जे रागादिभावो छे ते पण सर्व
आत्मप्रदेशोमां छे. आत्माना अमुक प्रदेशोमां राग थाय ने बीजा प्रदेशो राग वगरना
रहे एम बनतुं नथी.
हवे जेम कर्म अने तेना कारणरूप राग सर्वप्रदेशे छे तेमने कर्मसंबंधने छेदनार
ने रागने छेदनार एवो ज्ञानभाव पण सर्व आत्मप्रदेशे छे.