Atmadharma magazine - Ank 268
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: माह : २४९२ आत्मधर्म : ३५ :
आ रीते ज्ञान राग ने कर्मसंबंध एक क्षेत्रे सर्वआत्मप्रदेशे होवा छतां लक्षणभेदे
तेमां भिन्नता छे. ज्ञान तो स्वलक्षणभूत चैतन्यस्वभाव साथे तन्मय छे. रागनो संबंध
अजीवकर्म साथे छे; ते राग अने कर्म बंने शुद्धजीवना लक्षणभूत नथी. जे ज्ञान छे ते ज
आत्मानी स्वजात छे. राग ते शुद्धजीवनी जात नथी, माटे ते जीव नथी. राग वगरनो
जीव होय, कर्मना संबंध वगरनो जीव होय, पण ज्ञान वगरनो जीव कदी न होय.
हे शिष्य! वीतरागी स्वसंवेदनज्ञानथी ग्राह्य थाय तेने ज तुं
निःसंदेहपणे आत्मा जाण. स्वसंवेदनज्ञान हंमेशा वीतरागी ज होय छे; ते स्वसंवेदनमां
रागनी सहाय नथी. रागथी भिन्न वस्तुनी प्राप्ति रागवडे केम थाय? न थाय; वीतरागी
स्वसंवेदनथी ज तेनी प्राप्ति थाय छे.
(८७) प्रश्न:– ‘अपलक्षण’ एटले शुं?
उत्तर:– लक्षणथी विरुद्ध ते अपलक्षण. आत्मानुं लक्षण ज्ञान छे; ते लक्षणथी
विरुद्ध एवा रागादि ते अप–लक्षण छे; ज्ञानलक्षणने भूलीने जे जीव रागादिथी लाभ
माने छे ते अपलक्षणने सेवनारो छे. प्रभु आत्मामां ज्ञानादि निजगुणोनो पार नथी.
पण तेने भूलीने ते रागादिने सेवतो थको, तेटलो ज पोताने मानीने पामर थई रह्यो
छे. प्रभु! स्वलक्षणथी तारा आत्माने जाणीने तेनो विश्वास कर.
(८८) प्रश्न:– शुद्धउपयोग अने शुद्धपरिणति ए बेमां शुं फेर?
उत्तर:– शुद्धउपयोग तो स्वरूपना निर्विकल्पध्यान वखते ज होय छे; नीचे
गुणस्थाने सम्यग्द्रष्टिने ते क््यारेक क््यारेक होय छे. सातमा गुणस्थानथी शरू करीने
उपर ते निरंतर होय छे. ज्यारे शुद्धपरिणति तो धर्मीने सदाय भूमिका अनुसार
वर्तती ज