Atmadharma magazine - Ank 268
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 7 of 55

background image
: ४ : आत्मधर्म : माह : २४९२
नथी. जेने एवी बहारनी ऋद्धिनुं के वकतृत्वनुं, कवित्वनुं, शास्त्र बनाववानुं अभिमान
छे, एनावडे पोतानी महत्ता भासे छे तेने चैतन्यनी महत्ता भासती नथी; एटले तेने
आत्मानी खरी प्रीति जागती नथी. भाई, जो तारे आत्मानी प्रीति करवी होय तो
अन्य समस्त ऋद्धिनी के बहारनां डहापणनी प्रीति छोड, ने निर्विकल्प समाधिवडे
अंतरमां तारा आत्मतत्त्वने देखीने तेनी प्रीति कर. अंतरमां नजर करतां ज आठे
कर्मरहित तारुं शुद्धस्वरूप तने देखाशे. एनी प्रीतिवडे तारो मोह क्षणमां छूटी जशे, कर्मो
क्षणमां भस्म थई जशे ने परम आनंदनो अनुभव थशे; ने एना ध्यानमां एकाग्र
थता अंतर्मुहूर्तमां केवळज्ञान थशे.
आत्मानी प्रीतिनुं आवुं उत्तम फळ छे एम जाणीने, हे जीव! बीजी समस्त
चिन्ताओ छोडीने तुं आत्मस्वरूपनुं चिंतन कर. अरे, मारा आनंदस्वरूपमां आ कलेश
शो? आ चार गतिना दुःख शा! –आम जो तने चार गतिनां दुःखनो डर लाग्यो होय
ने आत्मिक आनंदनी जिज्ञासा जागी होय तो लोकसंबंधी समस्त चिन्ता छोडीने तारा
आत्मस्वरूपनुं चिन्तन कर....तारा अचिंत्य–अपार महिमाने लक्षगत करीने
अनुभवमां ले.

आत्मा ज्ञानस्वभावी छे, जगतना पदार्थो
प्रमेयस्वभावी छे; ते पदार्थो तारा ज्ञानमां प्रमेय
थाय एवो तेनो स्वभाव छे ने तारुं ज्ञान एने जाणे
एवो तारो स्वभाव छे; पण ए पदार्थो तने राग–द्वेष
करावे एवो स्वभाव एनामां नथी, ने एने जाणतां
रागद्वेष करे एवो स्वभाव जाणनारमां नथी. बस,
‘ज्ञान’ मां तो वीतरागता ज छे. जे रागद्वेष थाय छे
ते ज्ञानमां नथी, ज्ञानथी बहार छे.
* * * * *
सम्यग्दर्शन भाग १–२–३
छ रूपियानी किंमतना आ त्रण पुस्तकोनो सेट मात्र
बे रूपियामां अपाय छे. थोडी ज नकलो बाकी छे.