Atmadharma magazine - Ank 268
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: माह : २४९२ आत्मधर्म : ५ :
(परमात्मप्रकाश गा. ११७–११८)
(आत्मिकसुखनी उर्मि जगाडनारुं सुंदर प्रवचन)
बाह्य विषयोना संगमां पडेला, ने तीव्र मोहरूपी अग्निथी दग्ध एवा बधा
जीवो आ संसारमां दुःखी छे; विषयसंगथी रहित आत्मलीन निर्मोही मुनिवरो ज सुखी
छे. मुनिओना पेटामां सम्यग्द्रष्टिने पण सुख छे ते समजी लेवुं.
आनंदस्वरूप आत्माना स्वसंवेदनथी जे आनंद धर्मात्माने आवे छे,
विषयसंगमां पडेला अज्ञानीने ते आनंदनो आभास पण नथी.
बहिर्मुख विषयोमांथी सुखबुद्धि हटावीने, धर्मीजीवे आनंदस्वरूप आत्मामां
प्रवेश कर्यो छे, त्यां तेने विषयो वगरनुं सहज–स्वाभाविक आत्मसुख वेदाय छे, ते सुख
जगतना कोई विषयोमां नथी; ते सुख तो सिद्ध भगवंतोनी जातनुं छे.
ईन्द्रना वैभवनो भोगवटो करे छे ते जीव सुखी छे–एम नथी; सुखी तो ते ज छे
के जे जीव अंत्रमुख थईने चैतन्यना निजवैभवनुं वेदन करे छे.
सुखिया जगतमां संत......दुःखिया दुर्जनिया रे......
सत्स्वरूप आत्मामां ज रमी रह्या छे ते संतो जगतमां सुखीया छे, ने आत्माने
भूलीने विषयकषायोनी चिन्तामां जे पड्या छे एवा दुर्जनो दुःखीया छे. चोथा
गुणस्थानवाळा समकिती ते पण संत छे. ते संत अनंतसुखना धाम एवा निजस्वरूपने
जाणीने तेने सदा उपादेयपणे ध्यावे छे.
श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–
सुखधाम अनंत सुसंत चही, दिनरात रहे तद् ध्यानमहीं,
अनंत सुखनुं धाम एवुं जे निजस्वरूप–तेने चाहीने, तेनी प्रीति करीने, तेनां
श्रद्धा ज्ञान करीने, संतो दिनरात तेना ध्यानमां मशगुल रहे छे, ने एना ध्यानमां एने