: फागण : २४९२ आत्मधर्म : ११ :
ज्ञा नी नुं भे द ज्ञा न
अ ज्ञा नी नी दे ह बु द्धि
अज्ञानी साचा आत्माने देखतो नथी;
ज्ञानी ज अंतर्मुखीद्रष्टिथी साचा आत्माने देखे छे.
अज्ञानी संयोगवाळो ने विकारवाळो ज आत्मा
देखे छे,–ते साचो आत्मा नथी.
परमात्मप्रकाश–प्रवचन गा. ८६–८९
ज्ञानी पोताने देहस्वरूप नथी जाणता, ज्ञानी तो पोताने ज्ञानस्वरूप जाणे छे. हुं
ज्ञान छुं’–एम स्वसंवेदनथी ते अनुभवे छे, ने एवा निजस्वरूपने ने साक्षात् उपादेय
जाणे छे, देहादि संयोग जुदा होवाथी तेने साक्षात् हेय समजे छे.
मिथ्याद्रष्टि, जेने शुद्धचैतन्यतत्त्वनुं वेदन नथी ते एम जाणे छे के हुं मनुष्य, हुं
काळो, हुं धोळो वगेरे. एवी देहबुद्धिने लीधे ते सामा आत्माने पण देहथी भिन्न
ओळखी शकतो नथी. ज्ञानी एक पण परद्रव्यने पोतामां जोडतो नथी, तेनाथी साथे
एनो संबंध मानतो नथी; देहादिथी साक्षात् जुदो ज्ञानस्वरूप आत्मा निर्विकल्प
स्वसंवेदनथी सम्यग्द्रष्टि अनुभवे छे. तेने ‘हुं आ छुं’ एवी तन्मयबुद्धि
ज्ञानआनंदस्वरूपमां ज छे.
अज्ञानी जे पोतामां नथी तेने पोतामां समजे छे ने पोतामां जे खरुं स्वरूप छे
तेने ते जाणतो नथी. ज्ञानी तो स्वसंवेदनना बळथी जाणे छे के मारुं स्वरूप तो ज्ञान
छे, जडनो अंश पण मारामां नथी. ज्ञानने विकल्पो साथेय एकता नथी त्यां
बाह्यवस्तुनी शी वात? आम आखी दुनियानो संबंध छोडीने धर्मी स्वतत्त्वनी सन्मुख
थाय छे.
स्व–परनी भिन्नताने जाणतो ने चैतन्यस्वरूपे पोताने अनुभवतो ज्ञानी,
संयोगने पोतामां खतवतो नथी एटले पोते संयोगने आधीन थतो नथी. अज्ञानी तो
पोतानुं अस्तित्व ज देहादिसंयोगमां मानतो थको, संयोगआधीन ज वर्ते छे, एटले
संयोगआश्रित राग–द्वेषरूपे ज ते मिथ्याबुद्धिथी परिणमे छे, वीतरागी स्वसंवेदनरूप
आत्मज्ञान तेने थतुं नथी.