: फागण : २४९२ आत्मधर्म : १५ :
हवे, आराधना करनार पोताना आराध्यनी साथे तन्मयरूप थया वगर साची
आराधना थई शके नहि. आराधक–पर्याय आराध्य द्रव्यनी साथे तद्रुप थईने परिणमे
छे त्यारे ज साची आराधना थाय छे.
(२१४) आत्मा.
आत्मा भेदाभेद स्वरूप छे.
आत्माने कोनी साथे भेद छे?
परद्रव्यो साथे आत्माने भेद छे, एटले के जुदाई छे.
आत्माने कोनी साथे अभेद छे?
पोताना ज्ञानादि अनंतगुणो साथे आत्माने अभेद छे, एटले के तेनाथी जुदाई
नथी, एकता छे.
एज आत्माने आचार्यदेवे ‘एकत्वविभक्त’ कहीने समजाव्यो छे.
एकत्व एटले पोताना गुणपर्यायोमां अभेद अने विभक्त एटले परद्रव्योथी ने
परभावोथी भिन्न.
–आवा शुद्ध आत्माने जाणवो ते भेदज्ञान छे.
(२१प) आकाश अने आत्मा.
जे अनंत प्रकाश, तेने जाणी लेवानी ताकातवाळो अनंतशक्तिसम्पन्न आत्मा, ते
आकाशना अनंतमा भागमां समाई गयो छे.
अने आत्माना केवळज्ञानरूपी दर्पणमां, अनंत आकाश एक रजकणनी जेम
ज्ञेयपणे समाई गयुं छे.
आवा अचिंत्य ज्ञानसामर्थ्यनुं माप क्षेत्रना विस्तार वडे नहि नीकळे;
ज्ञानपर्यायने ते ज्ञानशक्ति तरफ वाळतां ज ज्ञाननी अचिंत्य ताकात लक्षगत थाय छे.
ज्ञाननी ताकात ज्ञान वडे ज जणाय छे, राग वडे ते लक्षगत थती नथी. आवी ज्ञान
ताकातनो जेने विश्वास आवे तेने रागादि परभाव साथेनी एकताबुद्धि रहे नहि,
संयोगबुद्धि रहे नहि, ‘हुं तो ज्ञान छुं–एम ते निःशंक जाणे छे.
(२१६) परमां सुखबुद्धि ते पापनुं मूळ.
बाह्य विषयोमां ने बाह्य संयोगमां जेणे सुख मान्युं ते बाह्यविषयो अने
बाह्यसंयोगो माटे शुं–शुं पाप नहीं करे? चैतन्यना सुखने चूकीने बाह्यविषयोमां ज जेणे
सुख मान्युं ते जीव बाह्यविषयोमां ज सुखने माटे झांवा नाखतो थको, तीव्र हिंसा–
असत्य वगेरे बधा पाप करतां अचकातो नथी, केम के त्यां ज सर्वस्व मान्युं छे. अरे,
मारुं सुख तो मारा आत्मामां छे, विषयोमां क््यांय मारुं सुख नथी–एवुं अंतरलक्ष करतां
मिथ्यात्व छूटे, परमां सुखबुद्धि मटे, एटले तीव्र पाप परि–