: १६ : आत्मधर्म : फागण : २४९२
णाम एने रहे नहीं. माटे आत्मानुं स्वरूप लक्षमां लईने तेनी रुचि कर.
(२१७) कामनी वस्तु.
अरे, जेनुं लक्ष करतां राग ने दुःख थाय ए वस्तु मारे शा कामनी?
जेनुं लक्ष करतां वीतरागी आनंद थाय एवी स्व–वस्तु ज मारे कामनी छे.
आम समजीने धर्मीजीव स्वद्रव्यमां रत थाय छे.
(२१८) अंतर ऊतर.
जगतनुं जे थाय ते थवा दे, देहनुं जे थतुं होय ते थवा दे–पण तुं अंदरमां जा..
एकवार अंतरस्वरूपने लक्षमां लईने तेनी अंदर...ऊतर अंदर महा आनंद छे...ज्ञान
चेतनानो महाविलास अंदर छे...अंदर जा...पछी तने बहार आववुं गमशे नहीं.
(२१८) हे जीव! आत्माने रहेंसी न नाख.
‘शरीर विना हुं न रही शकुं’–एम मानीने हे जीव! मिथ्यामान्यतारूप हिंसामां तुं
तारा आत्माने रहेंसी न नांख. शरीर विना हुं न रही शकुं,–एटले जडथी भिन्न ज्ञानादि
अनंतगुणस्वरूपे मारुं स्वतंत्र अस्तित्व छे–एम तें न स्वीकार्युं. ने जडना अस्तित्वमां तें
तारुं अस्तित्व स्वीकार्युं ए तो तारी मोटी भूल छे. प्रभु! तारो आत्मा सदा काळ जडथी
जुदापणे ने केवळज्ञानादि अनंतगुणो साथे तन्मयपणे ज बिराजी रह्या छे–तेने तुं जाण.
तारुं कोई एंधाण जडमां नथी. भाई, ज्ञानमय अनंतगुणनो राशि एवो तुं ज्ञानरहित
जडमां केम मोह्यो! तारा अनंतगुणने संभाळ, ने तेना आनंदने अनुभव.
(२२०) अंतर्मुख अवलोकतां–आनंदनो नहि पार.
बहारमां हुं छुं ज नहीं,–पछी बहारना प्रसंगथी मने दुःख केम थाय? हुं तो
मारा अंतरस्वरूपमां छुं, ने अंतरस्वरूपमां तो एकलो आनंद ज भर्यो छे.–आम धर्मी
जीव अंतर्मुख थईने पोताने आनंदस्वरूपे ज अनुभवे छे. एना आनंदनो पार नथी.
आनंदना दरिया एना आत्मामां ऊछळे छे. ‘अहो! अंतर्मुख अवलोकता..आनंदनो
नहि पार.’