यथार्थ स्वरूप लक्षगत करी लीधुं तो कहे छे के भवथी
तारो बेडो पार छे. सवारमां भगवानना दर्शनवडे
पोताना ईष्टध्येयने संभाळीने पछी ज श्रावक बीजी
प्रवृत्ति करे. ए ज रीते पोते जमतां पहेलां हंमेशा
मुनिवरोने याद करे के अहा, कोई संत–मुनिराज के
धर्मात्मा मारा आंगणे पघारे तो भक्तिपूर्वक तेमने
भोजन करावीने पछी हुं जमुं. देव–गुरुनी भक्तिनो
आवो प्रवाह श्रावकना हृदयमां वहेतो होय. भाई!
ऊठतांवेंत सवारमां तने वीतराग भगवान याद
नथी आवता, धर्मात्मा संत–मुनि याद नथी
आवता, ने संसारना चोपानियां वेपार–धंधा के स्त्री
आदि याद आवे छे, तो तुं ज विचार के तारी
परिणति कई तरफ जई रही छे?
पूजन नथी करतो तथा मुनिवरोने भक्तिपूर्वक दान नथी देतो तेनुं गृहस्थपणुं पत्थरनी
नोकासमान भवसमुद्रमां डुबाडनार छे–एम कहे छे–
न स्तूयेत न दीयते मुनिजने दानं च भक्त्या परम्।
सामर्थ्ये सति तद्गृहाश्रमपदं पाषाणनावा समं
तत्रस्था भवसागरेतिविषमे मज्जन्ति नश्यन्नि च।।१८।।