Atmadharma magazine - Ank 269
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 22 of 40

background image
: १८ : आत्मधर्म : फागण : २४९२
नथी करतो, अर्चन नथी करतो ने स्तवन नथी करतो, तेम ज परम भक्तिथी
मुनिजनोने दान नथी देतो, तेनुं गृहस्थाश्रमपद पत्थरनी नाव समान छे; ते पत्थरनी
नौका जेवा गृहस्थपदमां स्थित थयेलो ते जीव अत्यंत भयंकर एवा भवसागरमां डूबे
छे ने नष्ट थाय छे.
जिनेन्द्रदेव सर्वज्ञ परमात्मानां दर्शन–पूजन ते श्रावकनुं हंमेशनुं कर्तव्य छे.
हंमेशना छ कर्तव्यमां पण सौथी पहेलुं कर्तव्य जिनेन्द्रदेवना दर्शन पूजन छे. सवारमां
भगवाननां दर्शन वडे पोताना ध्येयरूप ईष्टपदने संभाळीने पछी ज श्रावक बीजी
प्रवृत्ति करे. ए ज रीते पोते जमतां पहेलां हंमेशा मुनिवरोने याद करे के अहा, कोई
संतमुनिराज के धर्मात्मा मारा आंगणे पधारे तो भक्तिपूर्वक तेमने भोजन करावीने
पछी हुं जमुं–आ रीते श्रावकना हृदयमां देवगुरुनी भक्तिनो प्रवाह वहेतो होय. जे
घरमां आवी देव–गुरुनी भक्ति नथी ते घर तो पथरानी नौका जेवुं डुबाडनार छे. छठ्ठा
अधिकारमां (श्रावकाचार–उपासकसंस्कार गाथा ३प मां) पण कह्युं हतुं के दान वगरनो
गृहस्थाश्रम पत्थरनी नौकासमान छे. भाई! उठतावेंत सवारमां तने वीतरागी
भगवान याद नथी आवता, धर्मात्मा संत–मुनि याद नथी आवता, ने संसारना
चोपानियां वेपारधंधा के स्त्री आदि याद आवे छे तो तुं ज विचार के तारी परिणति
कई तरफ जई रही छे?–संसार तरफ के धर्म तरफ? आत्मप्रेमी होय तेनुं तो जीवन ज
जाणे देव–गुरुमय थई जाय.
‘हरता फरतां प्रगट हरि देखुं रे..
मारुं जीव्युं सफळ तब लेखुं रे..’
पं. बनारसीदासजी कहे छे के“ जिनप्रतिमा जिनसारखी” जिनप्रतिमामां
जिनवरदेवनी स्थापना छे, तेना उपरथी जिनवरदेवनुं स्वरूप जे ओळखी ल्ये छे, ए
रीते जिनप्रतिमाने जिनसमान ज देखे छे. ते जीवने भवस्थिति अति अल्प होय छे,
अल्पकाळे ते मोक्ष पामे छे. “षटखंडागम” (भाग ६ पानुं ४२७) मां पण
जिनबिंबदर्शनने सम्यक्त्वनी उत्पत्तिनुं निमित्त कह्युं छे तथा तेनाथी निद्धत्त अने
नीकाचीतरूप मिथ्यात्वादि कर्मकलापनो पण क्षय थवानुं कह्युं छे, एनी रुचिमां
वीतरागी–सर्वज्ञ स्वभाव प्रिय लाग्यो छे ने संसारनी रुचि एने छूटी गई छे एटले
निमित्तमां पण एवा वीतरागी निमित्त प्रत्ये तेने भक्तिभाव उछळे छे. जे परम
भक्तिथी जिनेन्द्रभगवानना दर्शन नथी करतो, तो एनो अर्थ ए थयो के वीतरागभाव
नथी रुचतो, एने तरवानुं निमित्त नथी रुचतुं पण संसारमां डुबवानुं निमित्त रुचे छे.
जेवी रुचि होय तेवा प्रकार तरफ वलण