नथी उल्लसती, जेने पूजा–स्तुतिनो भाव नथी जागतो ते गृहस्थ दरिया वच्चे पत्थरनी
नावमां बेठो छे. नियमसारमां पद्मप्रभमुनि कहे छे के हे जीव!
तर्हि भवाम्बुधिमध्यग्राहमुखान्तर्गतो भवसि।।१२।।
डुबी जईश, भाई! माटे तारे आ भवदुःखना दरियामां न डुबवुं होय ने एनाथी तरवुं
होय तो संसार तरफनुं तारुं वलण बदलीने वीतरागी देव–गुरु तरफ तारा परिणामने
वाळ, तेओ धर्मनुं स्वरूप शुं कहे छे ते समज, तेमणे कहेला आत्मस्वरूपने रुचिमां ले;
नय होय छे, ने नय वडे साचो निक्षेप थाय छे. निक्षेप नय विना नहि, नय प्रमाण
विना नहि, ने प्रमाण शुद्धात्मानी द्रष्टि वगर नहीं. अहा, जुओ तो खरा, आ
वस्तुस्वरूप! जैन दर्शननी एक ज धारा चाली जाय छे भगवाननी प्रतिमा जोतां ‘अहो
आवा भगवान! एम एकवार पण जो सर्वज्ञदेवनुं यथार्थ स्वरूप लक्षगत करी लीधुं,
तो कहे छे के भवथी तारो बेठो पार छे!
ओळखाणपूर्वक ज परम भक्ति जागे; ने सर्वज्ञदेवने साची ओळखाण होय त्यां तो
आत्मानो स्वभाव लक्षगत थई जाय, एटले तेने दीर्घसंसार होय नहीं. आ रीते
भगवानना दर्शननी वातमां पण ऊंडु रहस्य छे. मात्र उपर उपरथी मानी ल्ये के,
स्थानकवासी लोको मूर्तिने न माने ने आपणे दिगंबर–जैन एटले मूर्तिने मानीए,–तो
एवा रुढिगत भावथी दर्शन करे, तेमां खरो लाभ थाय नहि, सर्वज्ञदेवनी ओळखाण
सहित करे तो ज खरो लाभ थाय. (आ वात ‘सत्ता स्वरूप’ मां घणा विस्तारथी
समजावी छे.)