: २० : आत्मधर्म : फागण : २४९२
अरे भाई! तने आत्मानां तो दर्शन करतां न आवडे ने आत्मानुं स्वरूप देखवा
माटे दर्पण समान एवा जिनदेवनां दर्शन पण तुं नथी करतो, तो तुं क््यां जईश बापु!
जिनेन्द्रभगवाननां दर्शन–पूजन पण न कर ने तुं तने जैन कहेवडाव,–ए तारुं जैनपणुं
केवुं? जे घरमां रोजरोज भक्तिपूर्वक देव–गुरुनां दर्शन–पूजन थाय छे, मुनिवरो वगेरे
धर्मात्माने आदरपूर्वक दान देवाय छे–ते घर धन्य छे; अने एना वगरनुं घर तो
स्मशानतूल्य छे. अरे! वीतरागी सन्त आथी विशेष शुं कहे? एवा धर्म वगरना
गृहस्थाश्रमने तो हे भाई! दरियाना ऊंडा पाणीमां तिलांजलि दई देजे!–नहितर ए
तने डुबाडशे!
धर्मी जीव रोज–रोज जिनेन्द्रभगवानना दर्शनादि करे छे. जेम संसारना रागी
जीवो स्त्री– पुत्रादिना मोढांने के फोटाने प्रेमथी जुए छे, तेम धर्मनो रागी जीव
वीतरागप्रतिमाना दर्शन भक्तिथी करे छे. रागनी दिशा बदलावतां पण जेने न आवडे
ते वीतरागमार्गने कई रीते साधशे? जेने वहाला पुत्र–पुत्रीने न देखे तो एनी माताने
चेन पडतुं नथी, अथवा माताने न देखे तो बाळकने चेन पडतुं नथी, तेम भगवानना
दर्शन वगर धर्मात्माने चेन पडतुं नथी. ‘अरेरे आज मने परमात्माना दर्शन न थया;
आजे मे मारा भगवानने न दीठा, मारा वहाला नाथना दर्शन आजे मने न मळ्या?”
आम धर्मीने भगवानना दर्शन वगर चेन पडतुं नथी. (चेलणा राणीने जेम श्रेणीकना
राजमां पहेलां चेन पडतुं न हतुं तेम.) अंतरमां पोताने धर्मनी लगनी छे ने
पूर्णदशानी भावना छे एटले पूर्णदशाने पामेला भगवानने भेटवा माटे धर्मीना
अंतरमां खटक गरी गई छे; साक्षात् तीर्थंकरना वियोगमां तेमनी वीतरागप्रतिमाने
पण जिनवर समान ज समजीने भक्तिथी दर्शन पूजन करे छे, ने वीतरागना
बहुमानथी एवी भक्ति स्तुति करे के जोनारनाय रोमरोम उल्लसी जाय. आ रीते
जिनेन्द्र देवना दर्शन, मुनिवरोनी सेवा, शास्त्रस्वाध्याय, दान वगेरेमां श्रावक प्रतिदिन
वर्ते छे.
अहीं तो मुनिराज कहे छे के शक्ति होवा छतां रोज रोज जे जिनदेवना दर्शन
नथी करतो ते श्रावक ज नथी; ते तो पत्थरनी नौकामां बेसीने भवसागरमां डूबे छे. तो
पछी वीतरागप्रतिमाना दर्शन–पूजननो जे निषेध करे एनी तो वात शी करवी?–एमां
तो जिनमार्गनी घणी विराधना छे, अरे सर्वज्ञने पूर्ण परमात्मदशा प्रगटी गई तेवी
परमात्मदशानो जेने प्रेम होय, तेने तेना दर्शननो उल्लास आव्या वगर केम रहे? ए
तो प्रतिदिन भगवानना दर्शन करीने पोतानी परमात्मदशारूप ध्येयने रोजरोज ताजुं
करे छे.