: २४ : आत्मधर्म : फागण : २४९२
एककोर प्रतिष्ठा महोत्सवमां पंचकल्याणकनां द्रश्यो रचाता हता, तो बीजी कोर
गुरुदेव प्रवचनमां पण कल्याणक प्रसंगोनुं रोमांचकारी वर्णन करता हता. तीर्थंकरना
जन्म कल्याणक वखते ईन्द्र आवे मातानी स्तुति करे छे तेनुं वर्णन करतां गुरुदेवे कह्युं–
हे माता! ते जगतने दीवो दीधो....हे जगतदीपकनी दातार, माता! तें अमने
जगतप्रकाशक दीवो आप्यो. हे लोकनी माता! तें अमने जगतनो नाथ आप्यो. तुं
तीर्थंकरभगवाननी जनेता छे.
जे दिवसे भगवाननो जन्म कल्याणक थयो ते दिवसना प्रवचनमां गुरुदेवे कह्युं–
हमणां तो भगवान पधारे छे एटले आठेय दिवस भगवानने भाववा छे कोई पूछे के
भगवानने भाववाथी शुं थवानुं? तो कहे छे के भगवानने भाववाथी भगवान
थवाना!
जेने जेनो रंग लागे तेनुं त्यां वलण वळे. सूता ने जागतां जेने सर्वज्ञ
भगवाननो रंग लाग्यो अने मारो आत्मा भगवान जेवो एवुं भान थयुं तेनुं वलण
आत्मा तरफ वळीने ते भगवान थया विना रहे नहि. अहो, अंदर विचारो के ‘हुं क््यां
ऊभो छुं!’ जैन वाडामां जन्मीने पण कदी भगवाननी भक्तिना पाना चडया
नहि....रंग लाग्या नहि तो ते अंदरना भगवान तरफ तो वळे क््यांथी?
वीतरागताना प्रेमीने वीतराग भगवानने भेटतां होंश आवे छे. भगवानना
भक्त भगवान पासे जईने कहे छे के हे नाथ! हे प्रभु! आपनी वीतरागताना प्रेमथी
आपने मळवा आव्यो छुं....प्रभु! मारा अंतरमां तारा प्रत्ये प्रेम जाग्यो छे ते बीजा शुं
जाणशे? नाथ! आप जाणो ने हुं जाणुं! हे नाथ! तारी वीतरागी मुद्रा नीहाळतां
अंदरथी एवो आह्लाद आवी जाय छे के जाणे हमणां अंदरथी प्रभुता प्रगटी....के
प्रगटशे? हे नाथ! तने भाळतां हुं मारी प्रभुताने ज भाळुं छुं....मारा ज्ञानने ज भाळुं
छुं. जुओ! आ भक्तिना टाणां आव्या छे....आवा मोंघा दिवसो बहु ओछा आवे छे.
संसारनी प्रीति घटाडीने वीतराग भगवाननी ओळखाण करीने तेमना गाणां पात्र
जीवो गाय छे....तेमां तेमनी रुचि तो भगवान जेवा पोताना शुद्ध आत्मस्वभाव उपर
ज पोषाय छे.
भरतक्षेत्रे भगवाननो विरह अने छतां भगवानना मार्गनी निःशंकता ए
बंनेनी मिश्र लागणीथी प्रवचनमां एकावन वर्षनी वयना गुरुदेव कहे छे के–हे नाथ!
तीर्थंकरना विरहे भरतक्षेत्रमां जुदा जुदा अभिप्राय थई पड्या. परंतु हे प्रभु! आपना
प्रतापे अमारा नीवेडा आवी गया....पार आवी गयो. आपना प्रतापे बधा नीवेडा
अने समाधान आवी गया पण जगतने केम समजाय! कोई महा भाग्यवान जीवो
समजीने कल्याण पामी जाय छे.