Atmadharma magazine - Ank 269
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९२ आत्मधर्म : २५ :
हे नाथ! आपनी दिव्यध्वनिनो धोध छूटतो हतो अने त्यां तो अनेक सन्तो
केवळज्ञान पामता. तेने बदले अहींना प्राणीमां तो अल्प पुण्य ने अल्प पुरुषार्थ!
छतांय–भलेने ते अल्प होय परंतु केवळज्ञानने ओळखीने तेनी श्रद्धा छे ने! एटले ते
पुरुषार्थ अल्प होवा छतां केवळज्ञान साथे संधिवाळो छे, एटले वच्चे भंग पड्या विना
पूर्ण केवळज्ञाननो भेटो थये छूटको! हे नाथ! पूर्णतानो संदेह नथी पण अधूरे आंतरा
पड्या छे....ते आंतरो अत्यारे तो आपनी ‘प्रतिष्ठा’ करीने टाळीए छीए.
तीर्थंकरो अने मुनिओनी तो शी
वात! तेओनुं तो जीवन स्वानुभव वडे
अध्यात्मरसथी ओतप्रोत बनेलुं छे; ते
उपरांत जैन शासनमां अनेक धर्मात्मा–
श्रावको पण एवा पाकया छे के जेमनुं
अध्यात्मजीवन अने अध्यात्मवाणी
अनेक जिज्ञासुओने अध्यात्मनी प्रेरणा
जगाडे छे. अध्यात्मरस ए जगतना
बधा रसो करतां सर्वोत्कृष्ट छे.