: २ : आत्मधर्म : फागण : २४९२
सम्यग्द्रष्टिनुं
द्रष्टिथी मोक्षमार्ग ऊघडी जाय छे)
(परमात्मप्रकाश गा. ६८ उपरनुं सुंदर प्रवचन)
शुद्धद्रव्यार्थिकनयथी जोतां धु्रवस्वभावी शुद्धद्रव्य बंध–मोक्षने करतुं नथी. जो के
पर्यायनयथी जोतां आत्मा शुद्धात्मानी अनुभूतिना अभावमां शुभ–अशुभ उपयोगरूपे
परिणमे छे एटले बंधने करे छे, ते ज रीते शुद्धात्मअनुभूति प्रगट करीने आत्मा
मोक्षमार्ग अने मोक्षने करे छे, आ रीते पर्यायरूप आत्मा बंध–मोक्षने करे छे, पण
शुद्धद्रव्यरूप धु्रवआत्मा बंध–मोक्षने करतो नथी, ए तो परम पारिणामिक
परमभावस्वरूप सदा एकरूप छे.
धु्रववस्तुमां पर्यायनी एकता वडे शुद्धात्मानी अनुभूति करीने आत्मा पर्यायमां
मोक्षने करे छे; ने एवी अनुभूति न होय त्यां आत्मा शुभ–अशुभरागवडे कर्मने बांधे
छे.–आम पर्यायद्रष्टिथी जोतां एटले के व्यवहाररूप आत्माने जोतां बंध–मोक्ष छे. पण
निश्चयरूप आत्मा–जे त्रिकाळ एकरूप रहेनार सत् छे तेने जोतां तेमां बंध–मोक्ष नथी.
बंध मोक्ष बंने पर्यायो व्यवहारनयनो विषय छे; निश्चयनयनो विषय
परमभाव एवो शुद्ध एकरूप स्वभाव छे, ते स्वभावने जोतां आत्मा बंध–मोक्षने
करतो नथी. हा, ते स्वभावने जोनारी पर्याय पोते मोक्षमार्गरूप परिणमी जाय छे. पण
ते जुदी पर्याय व्यवहारनो विषय छे.
बंध–मोक्ष, शुभ–अशुभ, जीवन–मरण ए विसद्रसरूप परिणमन छे, ने
परमस्वभाव एकरूप सद्रश छे ते बंध–मोक्ष वगरनो छे, शुभ–अशुभ वगरनो छे ने
जीवन–मरण वगरनो छे. आवो परमस्वभाव बताववानुं शुं प्रयोजन छे? के आवा
परमस्वभावने द्रष्टिमां लेतां मोक्षमार्ग प्रगटे छे.