मोक्षनुं थवुं–ए व्यवहार विषयमां छे. पण धु्रवस्वभावनी द्रष्टिथी जोतां आत्मा बंध–
मोक्षने करतो नथी, एकरूप छे तेमां बंध–मोक्षनुं बेपणुं नथी. एकरूपतत्त्वमां बंध ने
मोक्ष एवा बे प्रकार शा? धु्रवद्रष्टि करतां पर्यायमां बंध टळे छे ने मोक्ष थाय छे–ए तो
खरुं, पण ते धु्रवद्रष्टि जे शाश्वतवस्तुने देखे छे ते वस्तुमां बंध–मोक्षना भेद नथी.
उपदेश केम आपो छो?
बंधन पण कायमी ज रहे. धु्रवद्रष्टिथी जो बंधन होय तो बंधन पण धु्रव ज रहे, ने
आत्मा हंमेशा बंधायेलो ज रहे,–पण एम नथी. बंधननो छेद थईने मोक्षदशा प्रगटे छे,
माटे बंधन क्षणिक छे, ते धु्रववस्तुमां नथी. अने धु्रववस्तु बंधायेली नथी, माटे
धु्रववस्तुनी अपेक्षाए बंध–मोक्ष नथी. धु्रववस्तुमां बंधन कहेवुं ते तेनो अनादर करवा
जेवुं छे. अने धु्रववस्तुमां बंधन नथी तो तेने मोक्ष थवानुं कहेवुं ते पण बनी शकतुं
नथी.
छूटयो–तो ते तेनुं अपमान करवा जेवुं छे. तेम पर्यायद्रष्टिथी आत्माने पर्यायमां बंधन
हतुं ने पर्यायमां मोक्ष थयो–ए वात बराबर छे, पण जे वस्तुस्वभावमां कदी बंधन छे
ज नहि ते वस्तुस्वभावने ‘मोक्ष’ केम कहेवो? भाई, आवो तारो जे परम एकरूप
स्वभाव तेने स्वानुभूतिगम्य करतां सम्यग्दर्शन थाय छे. शुद्धस्वभावनी अनुभूतिथी
पर्यायमां बंधनो नाश ने मोक्षनी उत्पत्ति थाय छे.