Atmadharma magazine - Ank 269
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४९२ आत्मधर्म : ५ :
चमकत
चैतन्यसूर्य अने
चैतन्यहंसलो
(परमत्मप्रकश ग. १९ – १२०)
आ आत्मा आनंदस्वरूप चैतन्यसूर्य छे, ते केम भासे? तो कहे छे के निर्मळ मनमां
आत्मा जणाय छे, एटले के रागरहित निर्मळ ज्ञानपरिणाममां आ चैतन्यसूर्य आत्मा
देखाय छे. मलिन रागादि भावोथी जेनुं चित्त मलिन छे तेने ते मलिन चित्तमां आत्मा
देखातो नथी. जेम वादळाना आडंबरमां सूर्य देखातो नथी तेम चैतन्य अनुभूतिथी विरुद्ध
एवा क्रोध–कामादि विकारी भावोरूप वादळां वच्चे चैतन्यसूर्य देखातो नथी. चैतन्यनी
अनुभूति वडे काम–क्रोधादिना विकल्पोरूप वादळां वीखेराई जतां, निर्मळ ज्ञानरूपी
आकाशमां केवळज्ञानादि अनंतगुणरूपी किरणोथी झळहळतो शुद्धात्मारूपी सूर्य देखाय छे.
जेम मलिन दर्पणमां मुख देखातुं नथी, तेम रागद्वेष साथे मळेली मलिन
ज्ञानपरिणतिमां आत्मा अनुभवातो नथी. रागना रंगे रंगायेलुं ज्ञान शुद्ध आत्माने जाणी
शकतुं नथी. भेदज्ञानना बळे ज्ञान ज्यां रागथी जुदुं परिणम्युं त्यां ते राग रहित ज्ञानमां शुद्ध
आत्मानुं स्वसंवेदन थाय छे. अनंत किरणोथी चमकतो चैतन्यसूर्य साक्षात् बिराजी रह्यो छे
पण अज्ञानीने रागनी रुचिरूप मेलने लीधे ते देखातो नथी. रागथी जराक जुदो थईने देखे
तो निर्मळ ज्ञानदर्पणमां आत्मसूर्य स्पष्ट देखाय, एनुं साक्षात् स्वसंवेदन थाय.
आ चैतन्यसूर्य पोते पोतानी पर्यायमां जणाय छे, रागमां ते जणातो नथी.
रागमां चैतन्यनुं प्रतिबिंब नथी पडतुं. जे निर्मळ पर्याय अंतर स्वभावनी सन्मुख थई ते
पर्यायमां चैतन्यमूर्ति भगवान साक्षात् देखाय छे, ने एने देखतां अपूर्व आनन्द थाय छे.
शांत–शांत परिणति थईने अंदर ठरे त्यारे भगवान आत्मा देखाय. रागमां एकमेकपणे
जे परिणति वर्ते तेमां चैतन्य भगवान देखाय नहीं. क्रोधादिथी परिणाम हालक–डोलक थया
करता होय एवा अशांत परिणामथी आत्मा अनुभवमां आवे नहि. निर्विकल्प शांत
परिणाम वडे आत्मा अनुभवमां आवे छे; एवा शान्तपरिणाममां ज आनन्द छे.