Atmadharma magazine - Ank 270
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४९२ आत्मधर्म : ७ :
हे जीव! भेदज्ञानना
बळे निर्भय था
तुं शरीरनी द्रष्टि छोडीने आत्मानी द्रष्टि कर तो तने प्रतीत थशे के
शरीरना टुकडा थतां मारा टूकडा थता नथी. तुं भय न पाम के शरीरनुं
छेदन थतां हुं छेदाई जईश. असंख्यप्रदेशी अखंड आत्माना एक प्रदेशने
पण कोई छेदी शके नहि, तेमज अनंतगुणना पिंडमांथी एक्केय गुणने
कोई भेदीने जुदो पाडी शके नहि. आवो ज्ञानानंदस्वभावी हुं छुं–एम तुं
जाण; ने आवा तारा परमात्मस्वरूपने तुं निर्विकल्प थईने ध्याव. एना
ध्यानथी अल्पकाळमां ज तुं भवसागरने तरी जईश ने देहातीत
परमानंदस्वरूप मोक्षनी तने प्राप्ति थशे.
(परमात्मप्रकाश गा. ७१–७२ उपरनुं प्रवचन)
देहथी भिन्न आत्मस्वरूप बतावीने कहे छे के हे आत्माराम! तुं तो ज्ञान छो, देह
तुं नथी. माटे देहमां बूढापो आवे के मरण आवे तेथी तुं डर नहीं. आत्मा तो जरा
वगरनो अजर, ने मरण वगरनो अमर छे. ए ज रीते शरीर सुंदर–युवान होय तो ते
पण तुं नथी, माटे तेमां ‘आ मारुं’ एवो मोह न कर. हुं युवान, हुं रूपाळो, के हुं वृद्ध,
हुं काळो एम देहमां आत्मबुद्धि न कर. वीस वीस वर्षना युवान राजकुमारो देहथी भिन्न
अतीन्द्रिय आत्माने जाणीने तेने साधवा वनमां चाल्या गया. अरे, सम्यग्द्रष्टि
गृहस्थपणामां राजपाट ने राणीओ वच्चे देखाय छतां ते अंतरमां जाणे छे के कोनां आ
राजपाट ने कोनी आ राणीओ? ज्यां देह पण मारो नथी त्यां अन्य द्रव्यनी शी वात!
आवा भानमां धर्मीने मरणनो भय छूटी गयो छे. ‘मारुं मृत्यु थशे’ एवो भय तेने
थतो नथी. मारी चैतन्य प्रभुतामां कदी वृद्धावस्था के मरण नथी.
अरे जीव! एकवार तो जगतथी ने शरीरथी जुदा आत्माने लक्षमां ले तो तारा
बधाय भय मटी जाय. पांच ईन्द्रियो के ईन्द्रियना विषयो संबंधी समस्त विकल्पजाळने
छोडीने अंतर्मुख थईने अतीन्द्रिय आत्माने तारुं ध्येय बनाव.
आ देह छेदाय, भेदाय के क्षय पामे, तेमां तुं भय केम करे छे? ए देह तुं नथी–एम
समजीने भय छोड ने शुद्ध आत्माने ध्याव. स्वप्नेय धर्मीने शरीरमां पोतापणानी बुद्धि