Atmadharma magazine - Ank 270
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४९२ आत्मधर्म : ९ :
स्वभावी हुं छुं–एम तुं जाण. तेने तुं ध्येय बनाव. जे परम तत्त्वना ध्यानथी
भवसागरनो पार पमाय ते तुं छो. आवा तारा स्वतत्त्वने ध्येय बनावतां अपूर्व
समाधि थशे ने भवसागरनो पार पमाशे.
देहथी भिन्न ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने जे ध्यावे छे तेने देहनुं छेदनभेदन थतां
असमाधि थती नथी. देहनुं छेदनभेदन अने ते संबंधी जराक रागद्वेष कदाच थाय तो ते
रागद्वेष पण मारा ज्ञानानंदतत्त्वथी बहार छे, एम भेदज्ञान करीने जे ज्ञानानंदस्वरूप
परमात्मतत्त्वने निर्विकल्प ध्यानमां ध्यावे छे ते थोडा ज काळमां देहातीत
परमानंदस्वरूप मोक्षने पामे छे.
आ भेदज्ञाननुं फळ छे; माटे हे जीव! तुं
भेदज्ञानना बळे निर्भय था.
हे जीव!
तुं वीतरागमार्गनो
उपासक थयो, अने जगतना
जीवोनो स्वभाव तें जाणी
लीधो, तो हवे जगतना
जीवोद्वारा निंदा प्रशंसा थाय
तेमां तारे क््यां अटकवानुं रह्युं
छे?–तारे तो तारा वीतराग
मार्गमां ज चाल्या जवानुं छे.