: चैत्र : २४९२ आत्मधर्म : ११ :
(२२प) श्रद्धाकी बात
देवगुरुशास्त्रनी श्रद्धा ते सम्यक्त्व छे?
हा, पण ते देवगुरुशास्त्र रागवाळा छे के रागवगरना? देव तो सर्वज्ञ वीतराग
छे, गुरु एना साधक छे, ने शास्त्रो पण एज बतावे छे, एटले त्रणे रागवगरना छे.
बस, आवा रागवगरना देवगुरु शास्त्रनी श्रद्धा तो रागवगरना भावथी ज थई शके.
रागमां अटकेला भावे कांई रागवगरना देवगुरुशास्त्रनी श्रद्धा न थई शके. माटे रागथी
जुदो पडीने ज्ञानभावमां आवे तेने ज वीतरागी देवगुरु शास्त्रनी साची प्रतीत थाय
छे. रागमां ऊभो रहीने देवगुरुशास्त्रनी साची प्रतीत थती नथी. आ रीते निश्चय श्रद्धा
अने व्यवहारश्रद्धा बंने एक साथे समजवी.
(२२६) एकत्वना निजवैभवने भोगव
अरे परिणति विकार साथे तुं एकता करवा जाश त्यां स्वभाव साथे तारे
भिन्नता पडे छे!
जो स्वभाव साथे एकता करवी होय तो विकार साथेनी एकताने तोड.
ज्ञानने अने रागने एकता थई नथी, जुदाई ज छे, आवी भिन्नता जाणीने
ज्ञाननी एकता ज्ञान साथे कर. ए रीते एकत्व–विभक्त थईने तारा निजवैभवने
आनंदसहित भोगव.
(२२७) छूटकारोनो उल्लास
अरे जीव! छूटकाराना टाणे पशुओ पण थनगनी ऊठे छे, अने तने अनादिना
भवबंधनथी छूटकारानो आ अवसर आव्यो ते टाणे तारो आत्मा थनगनी न ऊठे–
एम केम बने? तने बंधनी वातनो (पुण्य–पापनी वातनो) उत्सव आवे ने बंधनथी
छूटीने मोक्षनी वातनो उत्साह न आवे–तो तने शुं थयुं? पशु जेवोय तुं न थयो! भाई
मोक्षनो उपाय संतो तने संभळावे छे, अनादिना बंधनथी छूटवानी रीत संतो तने
बतावे छे, तो तेमां उत्साह कर....मोक्षमां महान सुख छे एम जाणीने तुं उल्लसित था.
(२२८) वैराग्यनो मंत्र
जे कोई परिस्थितिथी तने दुःख लागतुं होय तो विचार के ते परिस्थिति अस्थिर
छे, ते कांई सदा रहेवानी नथी, अमुक काळमां ते पलटी जशे. माटे खेद छोडी, कोईपण
अस्थिर प्रसंग संबंधी हर्ष–विषाद छोडी, स्थिर टकनार एवो जे तारो धु्रवचिदानंद
स्वभाव तेनुं शरण ले. वैराग्यरूपी अमोघ मंत्रवडे संयोग प्रत्ये विरक्त थई स्वभाव
प्रत्ये परिणतिने झुकाव.
केमके–
लक्ष्मी शरीर सुख–दुःख अथवा शत्रु–मित्र जनो अरे!
जीवने नथी कंई धु्रव, ध्रुव उपयोग–आत्मक जीव छे.