: १२ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९२
(२२९) हुं....कोण?
अज्ञानी कहे छे–शरीर मारूं, पैसा मारा, रोग मारो, ने हुं एनो.
ज्ञानी जाणे छे–‘हुं ज्ञान!’ ज्ञानानंद चैतन्य स्वभाव मारो, ने हुं एनो.
(२३०) बहारमां सुख शोधतां अंतरनुं सुख टळे छे
आत्माथी बहार कोईपण पदार्थमां सुखने शोधतां तारूं सुख टळी जशे....एम
लक्षमां लईने हे जीव! बहारमां सुखनी बुद्धि छोड.....ने अंतरमां सुखस्वरूप तारो
आत्मा ज छे, तेमां ज सुखने शोध.
“सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे.
लेश ए लक्षे लहो”
बहारमां सुख शोधतां तारूं अंतरनुं सुख भुलाई जशे. तारा आत्मामां ज प्रीति
करतां तने तारूं सहज सुख प्राप्त थशे.
अनुभव
अनुभव ए चिंतामणि रत्न छे, अनुभव ए शांतरसनो कूवो छे.
अनुभव मुक्तिनो मार्ग छे, ने अनुभव ते मोक्षस्वरूप छे. अनुभवरसने
जगतना ज्ञानी लोको रसायण कहे छे, अनुभवनो अभ्यास ए तीर्थधाम
छे; अनुभवनी भूमि ए ज सकल ईष्ट पदार्थने उपजावनार खेतर छे,
अनुभव ते नरकादि अधोगतिथी बहार काढीने स्वर्ग–मोक्षरूप उर्ध्वगतिमां
लई जाय छे; अनुभवनी केलि ए कामधेनु अने चित्रावेली समान छे.
अनुभवनो स्वाद पंचामृतना भोजन समान छे, अनुभव कर्मोने तोडे छे ने
परमपद साथे प्रीति जोडे छे, अनुभव समान बीजो कोई धर्म नथी. (अहीं
पंचामृत, रसायण, कामधेनु चित्रवेली, चिंतामणीरत्न वगेरे पदार्थो
जगतमां सुखदायक तरीके प्रसिद्ध होवाथी तेमनुं द्रष्टांत दीधुं छे, बाकी
अनुभव तो ए बधाथी नीराळो कोई अनुपम छे.)
– पं बनारसीदासजी