बीजामां प्रवेशी जता नथी, छतां अज्ञानी निज ज्ञानने भूलीने खेदखिन्न थाय छे. स्व–
पर प्रकाशक सामर्थ्य ते तो ज्ञाननी निर्मळता छे, एने जाणे तो आत्माने जाण्यो
कहेवाय. स्वपरप्रकाशक ज्ञान रागने जाणतां रागरूप पोते थई गयुं नथी, पोते तो
ज्ञानपणे ज रह्युं छे. आवा ज्ञाननी प्रतीत ते वस्तु स्वभावनी प्रतीत छे.
प्रसिद्धि छे.
ज्ञानना स्वपर प्रकाशकपणामां आनंदनुं वेदन छे. तेमां दुःखनुं ज्ञान भले हो, पण तेने
ते दुःखनुं वेदन नथी.
ज्ञाननो स्वभाव छे. ते ज्ञानमां कांई आकूळता के खेद नथी. साधकपणामां राग पण छे.
ने ज्ञान तेने जाणे छे. त्यां कांई रागने जाणतां साधकना ज्ञानमां मलिनता थई जती
नथी, पण मिथ्याश्रद्धाने लीधे, ज्ञेयोमां ज मग्न थयेलो अज्ञानी जीव, ज्ञानने भूलीने
खेदखिन्न थाय छे. वस्तुस्वरूपने जाणे तो एवो खेद रहे नहि, ने स्व–परप्रकाशी ज्ञाननी
प्रतीत साथे आनंद प्रगटे. निर्दोष ज्ञानने तुं दोषवाळुं न मान. परने जाणता कांई
ज्ञानमां खेद नथी. ज्ञाननी प्रतीतने भूलीने ज्ञेयमां तन्मयता माने तो तेमां मिथ्यात्वनो
खेद छे. ए खेद टाळवा माटे स्व–परप्रकाशक ज्ञानने अनुभवमां ले, तो खेद टळे ने
अपूर्व आनंद प्रगटे. ज्ञाननी प्रतीत वगर कोई रीते समता के आनंद प्रगटे नहि.