जणाय तेमां तुं गभराई केम जाय छे? ज्ञानमां राग जणाय, तेथी कांई राग ज्ञानने
स्पर्शी जतो नथी, रागने जाणतां ज्ञान कांई रागी थई जतुं नथी, जडने जाणतां ज्ञान
कांई जड थई जतुं नथी. तारुं ज्ञान तो त्रणे काळे शुद्ध स्वभाववाळुं छे. एवा
जता नथी. तारुं ज्ञान ज्ञेयपणे थतुं नथी, तारुं ज्ञान तो जाणनारस्वरूप ज रहे. एम
ज्ञानस्वरूपी शुद्ध आत्माने तुं जाण न ज्ञेयो साथे ज्ञाननी एकताना भ्रमने तुं छोड. हुं
जाणनार छुं ने रागमय नथी, रोगमय नथी, एम निःशंकपणे तुं ज्ञानपणे ज रहे.
ज्ञानपणे ज आत्माने अनुभवमां ले तो तारा ज्ञानमां कोई आकुळता न रहे.
ज्ञान रागने नथी करतुं. ज्ञाननुं अस्तित्व ते कांई रागनी उत्पत्तिनुं स्थान नथी.
कांई रागमां चाल्यो जतो नथी, तुं तो ज्ञानपणे ज्ञानमां ज रह्यो छो.
अज्ञानीनी भ्रमणा छे. स्वसन्मुख अस्तित्वनी श्रद्धाथी भ्रष्ट थईने तेणे ते भ्रमणा
ऊभी करी छे. अज्ञानी स्व–परनी एकताना भ्रमथी परनुं जाणपणुं छोडवा मागे छे.
पण भाई! परने जाणनारे तो तुं छो, ज्ञानपणे तो तारुं अस्तित्व छे, तो शुं तारे तारा
अस्तित्वने छोडवुं छे? तारी हयातीनो तारे नाश करवो छे? ए कदी बने नहि. आत्मा
सदा ज्ञानरूप वस्तु छे, ते ज्ञानथी कदी छूटे नहि, एनुं अस्तित्व ज ज्ञानमय छे.
वस्तुमां लीन थयेलो छे; वस्तुथी बहार रहेलो
कोई भाव वस्तुने अनुभवी शकतो नथी.
एनाथी बहार छे.