Atmadharma magazine - Ank 270
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २४९२ आत्मधर्म : २३ :
तेमां बीजा निमित्तनुं ज्ञान कराववा, कर्मना उदयथी थयो एम कह्युं. खरेखर जीवे
पोतानी अशुद्ध परिणतिथी ज विकार कर्यो छे. विकार करवामां जीवना अज्ञाननो ज
अधिकार छे, तेमां परनो अधिकार नथी, ने शुद्धस्वभावनो अधिकार नथी.
क्यांय शुद्धद्रष्टिथी, जीवना शुद्धस्वभावमां विकारनुं कर्तृत्व नथी–एम बताववा
ते विकारने कर्मकृत कहे छे. पण तेने कर्मकृत कहीने ते विकारना कर्तृत्व वगरनो शुद्ध
आत्मस्वभाव देखाडवो छे. कांई कर्म विकार करावे छे माटे तेने तुं टाळी नहि शके–एम
कहेवानो अभिप्राय नथी. विकारनुं कर्तृत्व तारा शुद्ध स्वरूपनुं नथी माटे शुद्धस्वरूपनो
अनुभव कर तो विकार टळी जशे, एम समजाववानो आशय छे.
अरे जीव! तारा विकारमां परनो दोष केवो? तारी पर्यायमां विकार तुं कर ने
दोष बीजा माथे ढोळ–ए तो अन्याय छे, एमां स्वपरनी एकताबुद्धिरूप मोटो अपराध
छे माटे ते मिथ्याबुद्धि छोड. ने विकार वगरना तारा शुद्धात्माने देख–अनुभव, ए ज
अशुद्धताने टाळवानो उपाय छे.
परना कारणे अशुद्धता माने तेने अशुद्धता टाळवानो अवसर आवे नहि; केम के
अशुद्धताने टाळवा माटे ते पर सामे ज जोया करे, ने पर सामे जोये अशुद्धता कदी मटे
नहि.
परने कारणे जो तुं तारी पर्याय थवानुं मान, तो आचार्यदेव कहे छे के तुं खोटो
छो. तारे साचो थवुं होय तो परथी भिन्न एवा तारा शुद्ध स्वरूपने देख. परथी गुण–
दोष माने ते मिथ्याद्रष्टिजीव परद्रव्यने पोतानुं मान्या वगर रहे ज नहि, एटले
स्वद्रव्यनी शुद्धताने ते अनुभवे नहि.–एवा जीवने अशुद्धता न थाय तो बीजुं शुं
थाय? शुद्धस्वरूपनो अनुभव न होय त्यां अशुद्धता थया वगर रहे ज नहि. ते
अशुद्धता टाळवानो उपाय शुं? के शुद्धस्वरूपनो अनुभव करवो ते ज अशुद्धता
टाळवानो उपाय छे.
कोटी वर्षनुं स्वप्न पण जागृत थतां दूर थाय;
तेम विभाव अनादिनो ज्ञान थतां दूर थाय.
ज्यां आत्मा पोते पोताना ज्ञान स्वभावना
अनुभवमां समायो त्यां विभावो विराम पामी गया.
स्वभावनो उदय थयो ने विभावो थया अस्त.