Atmadharma magazine - Ank 270
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : चैत्र : २४९२
शुद्ध निश्चय – व्यवहारने समकिती ज जाणे छे
अध्यात्मपद्धत्तिथी मोक्ष सधाय; बंधपद्धत्तिथी मोक्ष न सधाय
* * *
“सम्यग्द्रष्टि बाह्य भावने बाह्य निमित्तरूप, माने छे; ते निमित्तो अनेकरूप छे,
एकरूप नथी, तेथी अंतरद्रष्टिना प्रमाणमां ते मोक्षमार्ग साधे छे. सम्यग्ज्ञान अने
स्वरूपाचरणनी कणिका जाग्ये मोक्षमार्ग साचो. मोक्षमार्ग साधवो ते व्यवहार, अने शुद्ध
द्रव्य अक्रियरूप ते निश्चय–आवा निश्चय–व्यवहारनुं स्वरूप सम्यग्द्रष्टि जाणे छे, मूढ
जीव ते जाणतो नथी ने मानतो पण नथी. मूढ जीव बंधपध्धत्तिने साधतो थको तेने
मोक्षमार्ग कहे छे पण ज्ञाता ते वात माने नहि.–केम? कारण के बंधने साधवाथी बंध
सधाय पण मोक्ष न सधाय.”
(परमार्थवचनिका)
जुओ, आ मोक्षमार्गनी सरस वात! धर्मी जीव कया प्रकारथी मोक्षमार्ग साधे छे
ने अज्ञानी तेमां शुं भूल करे छे ते बताव्युं छे. धर्मी जीवने सन्देहरहित स्वानुभवपूर्वक
द्रढ निर्णय छे के ज्ञानस्वरूप ज हुं छुं, मारो मोक्षमार्ग मारा ज्ञानस्वरूपना आश्रये ज
छे. त्रिकाळी शुध्ध द्रव्य ते मारो निश्चय अने तेना आश्रये प्रगटेली शुध्धपर्याय ते मारो
व्यवहार; ए सिवाय रागादि परभावो ते माराथी बाह्य. जुओ, अहीं व्यवहार क््यो
लीधो?–के शुध्ध द्रव्यना आश्रये निर्मळ पर्याय वडे मोक्षमार्गने साधवो ते धर्मीनो
व्यवहार छे. अज्ञानीने आवो व्यवहार होतो नथी, ने आवा व्यवहारने ते जाणतो पण
नथी.
शुध्ध द्रव्य ते निश्चय ने शुध्ध परिणति ते व्यवहार, एम कहीने निश्चय–व्यवहार
बंनेने एक ज वस्तुना अंग बताव्या, अने रागादि अन्य भावोने व्यवहार न कह्यो
पण ‘निमित्त’ कहीने तेने भिन्न बताव्या. आमां घणी सरस वात छे. आ व्यवहार
पोतामां छे ने निमित्त परमां छे. निश्चय–व्यवहार बंने एक प्रकारनां–एक जातनां छे,
ने परभावरूप