: चैत्र : २४९२ आत्मधर्म : ५ :
* पर भावथी भिन्न थईने जेवा एक क्षणना अवलोकनमां आवुं सुख–एना पूर्ण
सुखनी शी वात? एम धर्मीने आत्मानो कोई परम अचिंत्य महिमा स्फूरे छे;
पोतामां ज आनंदना दरिया उल्लसता ते देखे छे.
* हे जीव! तुं पण धर्मात्मानी जेम निश्चिंतपणे तारा आत्माने परम प्रीतिथी
ध्याव. तने पण तारामां एवुं ज सुख वेदाशे.
एक क्षण तो ध्यान कर....
अरे, अत्यारे अडधी क्षण तो कर.
सम्यक्त्वनी आराधना
जे जीव सम्यग्द्रष्टि छे, निश्चलपणे सम्यग्दर्शननो आराधक छे ते जीव
एकलो होय तो पण जगतमां प्रशंसनीय छे. भले ते पूर्वना दुष्कर्मना उदयथी
दुःखित होय, निर्धन होय, काळो–कूबडो होय तोपण परम आनंदस्वरूप
अमृतमार्गमां रहेलो छे, करोडो अबजोमां ते एकलो होय तो पण शोभे छे,
प्रशंसा पामे छे. सम्यग्द्रष्टि चंडाळ देहमां रह्यो होय तो पण तेने देवसमान
आदरणीय कह्यो छे, ते राखथी भारेल चिनगारी जेवो छे. (ए वात
समन्तभद्रस्वामीए रत्नकरंडश्रावकाचारमां कही छे.)
सम्यग्द्रष्टि तिर्यंच पण होय, रहेवानुं मकान न होय, तो पण प्रशंसनीय छे.
पूर्वकर्मनो उदय तेने हलावी शकतो नथी, ते सम्यक्त्वमां निश्चल छे. नानुं देडकुं
समवसरणमां बेठुं होय ने सम्यग्दर्शन वडे चेतन्यना आनंदने अनुभवे छे, त्यां
बीजा कया साधननी जरूर छे? भले पापकर्मनो उदय होय पण हे जीव! तुं
सम्यक्त्वनी आराधनामां निश्चल रहे. पापकर्मने उदय होय तेथी कांई सम्यक्त्वनी
किंमत चाली नथी जती.