Atmadharma magazine - Ank 271
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४९२ आत्मधर्म : १३ :
उपयोगनी अखंड धारा
स्वसन्मुख उपयोगनी केटली बधी जागृति
साधकने होय! ते संबंधी एक हाथनोंधमां श्रीमद्
राजचंद्र लखे छे के–
हे मुनिओ! ज्यांसुधी केवळ समवस्थानरूप
सहज स्थिति स्वाभाविक न थाय त्यांसुधी तमे ध्यान
अने स्वाध्यायमां लीन रहो
जीव केवळ स्वाभाविक स्थितिमां स्थित थाय
त्यां कांई करवुं रह्युं नथी.
ज्यां जीवनां परिणाम वर्धमान, हीयमान थया
करे छे त्यां ध्यान कर्तव्य छे. अर्थात् ध्यानलीनपणे सर्व
बाह्यद्रव्यना परिचयथी विराम पामी निजस्वरूपना
लक्षमां रहेवुं उचित छे.
उदयना धकाथी ते ध्यान ज्यारे ज्यारे तूटी जाय
त्यारे त्यारे तेनुं अनुसंधान घणी त्वराथी करवुं.
वच्चेना अवकाशमां स्वाध्यायमां लीनता करवी.
सर्व परद्रव्यमां एक समय पण उपयोग संग न पामे
एवी दशाने जीव भजे त्यारे केवळज्ञान उत्पन्न थाय.
(अहीं जेम केवळज्ञानना उपाय तरीके अखंड
उपयोगधारानी वात करी छे तेम, सम्यग्दर्शनना
प्रयत्नमां पण ते वात लागु पडे छे एटले के मुमुक्षुए
सम्यग्दर्शन माटे पण उपयोगने निजस्वरूपमां
जोडवानो अखंड उद्यम कर्तव्य छे. आ वातने
अनुलक्षीने उपरनुं लखाण फरी वांचवाथी मुमुक्षुने
सम्यक्त्वना पुरुषार्थनी अखंडधारानी प्रेरणा मळशे.
–सं)