Atmadharma magazine - Ank 271
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९२
कार्यसिद्धिनो पुरुषार्थ
मोक्षरूप निजकार्यनी सिद्धिनो पुरुषार्थ बतावतां श्री अमृतचंद्राचार्यदेव पुरुषार्थ–
सिद्धिउपायमां कहे छे के–
विपरीताभिनिवेशं निरस्य सम्यक्व्यवस्य निजतत्त्वं।
यत्तस्मादबिचलनं स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयं।।१५।।
विपरीत श्रद्धानने छोडीने अने निजस्वरूपने सम्यक्पणे जाणीने, तेनाथी
अविचलितपणुं ते ज पुरुषार्थनी सिद्धिनो उपाय छे.
अनुसरतां पदमेतत् करम्बिताचारनित्यनिरभिमुखा।
एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः।।१६।।
आ रत्नत्रयरूप पदने अनुसरनारा मुनिओनी वृत्ति अलौकिक होय छे;
पापचरणथी सदाय पराडमुख अने परद्रव्योथी सर्वथा उदासीनरूप तेमनी वृत्ति होय छे.
आत्मिक चैतन्यनो अनुभव करवामां ज तेओ तत्पर होय छे.
आवा पुरुषार्थवडे तेओ निजकार्यनी सिद्धि करे छे.
एकवार गुरुदेवे पूछयुं–जगतमां भावेन्द्रिय केटली?
–अनंत
–जगतमां द्रव्येन्द्रिय केटली?
–असंख्यात
द्रव्येन्द्रिय दरेक जीवने भिन्नभिन्न नथी केमके साधारण एकेन्द्रियोमां अनंता
जीवो वच्चे मात्र एक द्रव्येन्द्रिय होय छे. पण भावेन्द्रिय तो दरेक जीवने भिन्न भिन्न छे.
भावेन्द्रिय बे जीवो वच्चे एक न होय.
भावेन्द्रिय ते जीवनी पर्याय छे, ते दरेक जीवनी भिन्न भिन्न छे.
द्रव्येन्द्रिय ते जीवनी पर्याय नथी, ते तो संयोगरूप छे, ते संयोग अनेक जीवने
एक होई शके छे.
आ रीते द्रव्येन्द्रियथी भावेन्द्रियनुं स्वतंत्रपणुं छे.