: वैशाख : २४९२ आत्मधर्म : १५ :
आत्मधर्मनी सहेली लेखमाळा
(लेख नं. ३प अंक २६९ थी चालु)
भगवान श्री पूज्यपादस्वामीरचित ‘समाधिशतक’ उपर पू. गुरुदेवना
अध्यात्मभावनाभरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
भेदज्ञान ते परम शांतिनुं मूळ छेे. एवा भेदज्ञाननी भावनानुं घोलन करतां
कह्युं के जेम जाडा वस्त्रथी लोको पोताने जाडो–पृष्ट मानता नथी तेम बुधपुरुषो जाडा
शरीरमां रहेला आत्माने ते शरीररूप–जाडो मानता नथी, पण जेम देहथी वस्त्र भिन्न
वळी कहे छे के–
जीर्णे वस्त्रे यथाऽऽत्मानं न जीर्णंमन्यते तथा।
जीर्णे स्वदेहेप्यात्मानं न जीर्णं मन्यते बुधः।।६४।।
शरीर उपर वस्त्र होय ते जीर्ण थाय के फाटी जाय, तेथी कांई शरीर जीर्ण थतुं
नथी के फाटी जतुं नथी; तेम आ शरीर जीर्ण थतां आत्मा कांई जीर्ण थतो नथी. शरीर
जीर्ण थाय–रोगी थाय घरडुं थाय त्यां हुं जीर्ण थयो–हुं रोगी थयो के हुं वृद्ध थयो–एम
बुधजनो एटले के ज्ञानीओ मानता नथी. हुं तो जाणनार छुं; हुं स्वयंसिद्ध
अनादिअनंत छुं; मारे बाल–