साधकदशा ते धर्मनी युवानदशा छे एटले के पुरुषार्थनी दशा छे, ने केवळज्ञान तथा
सिद्धपद प्राप्त थाय ते आत्मानी वृद्धावस्था छे, अर्थात् त्यां ज्ञान परिपक्व थयुं छे. आ
सिवाय शरीरनी बाल–युवान के वृद्धावस्था ते आत्मानी नथी. शरीर वृद्ध थाय ने
ज्ञान तो जाणे छे के आ शरीरमां पहेलां आवी शक्ति हती, ने हवे शरीरमां एवी शक्ति
नथी. पण शरीरमां शक्ति हो के न हो ते कांई मारुं कार्य नथी. हुं तो ज्ञान अने
आनंदस्वरूप ज छुं, ज्ञानमां ज मारो अधिकार छे, शरीरमां मारो अधिकार नथी.
अज्ञानीने एम थाय छे के ‘मारी शक्ति मोळी पडी’–एटले ते अज्ञानी तो देहद्रष्टिथी
आकुळ–व्याकुळ ज रहे छे, देहनी अनुकूळता होय त्यां ‘हुं सुखी’ एम मानीने ते
अनुकूळतामां मूर्छाई जाय छे, ने ज्यां प्रतिकूळता होय त्यां ‘हुं दुःखी’ एम मानीने ते
प्रतिकूळतामां मूर्छाई जाय छे; ज्ञानी तो देहादिथी भिन्न चैतन्यस्वरूपे ज पोताने जाणे छे
तेथी तेओ कोई संयोगोमां मूर्छाता नथी. चैतन्यना लक्षे तेमने शांति रहे छे.ाा ६४ाा
नष्टे स्वदेहोव्यात्मानं न नष्टं मन्यते बुधः।६५।।
नाश थतां ज्ञानी पोतानो नाश मानता नथी. शरीर धन–पुष्ट रहो, जीर्ण थाओ के नष्ट
थाओ,–ए त्रणे अवस्थाथी जुदो हुं तो ज्ञान छुं, शरीरनी बाल्यादि त्रणे दशानो
जाणनार हुं छुं पण ते–रूपे थनार हुं नथी.
मरी गयेलो मान्यो ते भ्रमणा हती, तेम जीव आ देह छोडीने बीजा भवमां जाय त्यां
अज्ञाननिद्रामां सूतेलो अज्ञानी भ्रमणाथी एम माने छे के ‘अरेरे! हुं मरी गयो.’ पण
जातिस्मरण वगेरेमां भान थाय के पूर्वे जे अमुक भवमां हतो ते ज आत्मा हुं अत्यारे