Atmadharma magazine - Ank 271
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 23 of 81

background image
: १६ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९२
युवान के वृद्धपणुं नथी. हा, आत्मानी अज्ञानदशामां बालपणुं हतुं; हवे आत्मभान रूप
साधकदशा ते धर्मनी युवानदशा छे एटले के पुरुषार्थनी दशा छे, ने केवळज्ञान तथा
सिद्धपद प्राप्त थाय ते आत्मानी वृद्धावस्था छे, अर्थात् त्यां ज्ञान परिपक्व थयुं छे. आ
सिवाय शरीरनी बाल–युवान के वृद्धावस्था ते आत्मानी नथी. शरीर वृद्ध थाय ने
शरीरनी शक्तिओ क्षीण थई जाय तेथी कांई आत्मानी ज्ञानशक्ति हणाई जती नथी.
ज्ञान तो जाणे छे के आ शरीरमां पहेलां आवी शक्ति हती, ने हवे शरीरमां एवी शक्ति
नथी. पण शरीरमां शक्ति हो के न हो ते कांई मारुं कार्य नथी. हुं तो ज्ञान अने
आनंदस्वरूप ज छुं, ज्ञानमां ज मारो अधिकार छे, शरीरमां मारो अधिकार नथी.
अज्ञानीने तो देह अने ईन्द्रियोथी पार चैतन्यतत्त्व लक्षमां ज आव्युं नथी, एटले
देह तथा ईंद्रियोने ज ते आत्मा माने छे; ज्यां देह अने ईंद्रियो मोळी पडे त्यां ते
अज्ञानीने एम थाय छे के ‘मारी शक्ति मोळी पडी’–एटले ते अज्ञानी तो देहद्रष्टिथी
आकुळ–व्याकुळ ज रहे छे, देहनी अनुकूळता होय त्यां ‘हुं सुखी’ एम मानीने ते
अनुकूळतामां मूर्छाई जाय छे, ने ज्यां प्रतिकूळता होय त्यां ‘हुं दुःखी’ एम मानीने ते
प्रतिकूळतामां मूर्छाई जाय छे; ज्ञानी तो देहादिथी भिन्न चैतन्यस्वरूपे ज पोताने जाणे छे
तेथी तेओ कोई संयोगोमां मूर्छाता नथी. चैतन्यना लक्षे तेमने शांति रहे छे.ाा ६४ाा
वळी, जेम देहनी युवान के वृद्धावस्थाथी धर्मी पोताने युवान के वृद्ध मानता
नथी तेम देहना नाशथी धर्मी पोतानो नाश मानता नथी,–ए वात कहे छे–
नष्टे वस्त्रे यथात्मानं न नष्टं मन्यते तथा
नष्टे स्वदेहोव्यात्मानं न नष्टं मन्यते बुधः।६५।।
जेम वस्त्रनो नाश थतां ते वस्त्र पहेरनार माणस पोतानो नाश मानी लेतो
नथी; वस्त्रनी बांय कपाय तेथी कांई मनुष्यनो हाथ कपाई जतो नथी; तेम स्वदेहनो
नाश थतां ज्ञानी पोतानो नाश मानता नथी. शरीर धन–पुष्ट रहो, जीर्ण थाओ के नष्ट
थाओ,–ए त्रणे अवस्थाथी जुदो हुं तो ज्ञान छुं, शरीरनी बाल्यादि त्रणे दशानो
जाणनार हुं छुं पण ते–रूपे थनार हुं नथी.
जेम कोईने स्वप्न आव्युं के ‘हुं मरी गयो.’ अने एवा स्वप्नथी भयभीत थतां
राड पाडी, ने जाग्यो; जागीने जोयुं के ‘अरे! हुं तो आ जीवतो रह्यो!’ स्वप्नमां में मने
मरी गयेलो मान्यो ते भ्रमणा हती, तेम जीव आ देह छोडीने बीजा भवमां जाय त्यां
अज्ञाननिद्रामां सूतेलो अज्ञानी भ्रमणाथी एम माने छे के ‘अरेरे! हुं मरी गयो.’ पण
जातिस्मरण वगेरेमां भान थाय के पूर्वे जे अमुक भवमां हतो ते ज आत्मा हुं अत्यारे
छुं, माटे मारुं मरण नथी थयुं. में पूर्वे देहद्रष्टिथी ज मारुं