आत्माने देहथी जुदो ज जाणे छे. हुं तो ज्ञान छुं; देह हुं छुं ज नहि, पछी मारो नाश
केवो? देहना नाश प्रसंगे पण ‘मारुं मरण थशे’ एवो भय के संदेह ज्ञानीने थतो नथी,
माटे ज्ञानीने मृत्युनो भय नथी. मृत्यु मारुं छे ज नहि–एम जाण्युं पछी मरणनी बीक
जाणनारा संतोने मरणनी बीक होती नथी. सिंह आवे ने भयथी भागे छतां ते वखते
य ‘मारुं मरण थई जशे’ एवो मरणनो भय ज्ञानीने नथी. मारुं चैतन्यतत्त्व
अविनाशी छे, पूर्वे अनंत देहनो संयोग थयो ने नाश थयो छतां मारो नाश थयो नथी;
हुं तो ज्ञानस्वरूप एवो ने एवो छुं. शरीरादि कोई मारी वस्तु नथी, मारी वस्तु तो
ज्ञान–आनंदमय छे, ते कदी माराथी छूटी पडती नथी. आ रीते धर्मात्मा शरीरना
नाशथी पोतानो नाश मानता नथी; पण अविनाशी ज्ञानस्वरूपे पोताने अनुभवे छे,
एटले तेने परम शांति ने समाधि वर्ते छे. आ रीते भेदज्ञाननी भावना ते ज परम
शांतिनी दातार छे.ाा ६पाा
पुरुषो पोताना आत्माने तेवो मानता नथी. –
रक्ते स्वदेहेप्यात्मानं न रक्तं मन्यते धुधः।।६६।।
आत्मानो रंग मानता नथी. रंगवाळुं रातुं–पीळुं शरीर ते हुं नथी, हुं तो रंग वगरनो
अरूपी चैतन्य छुं–एम ज्ञानी पोताने देहथी भिन्न जाणे छे.
शरीर जुदा छे. तेम काळा–राता शरीरथी आत्मा काळो–रातो थई जतो नथी. शरीर
देखावडुं होय तेथी आत्मामां कांई गुण थई जाय, के शरीर कदरूपुं होय तेथी आत्माने
करीने मोक्ष पामे,–तेमां कांई शरीर नडतुं नथी. ने कोईने रूपाळुं शरीर होय छतां पाप
करीने नरके जाय,–तेने कांई शरीर रोकतुं नथी. शरीर अने आत्मा तो जुदा ज छे.