आत्मस्वरूपने जे जाणतो नथी ने देहने ज आत्मा माने छे तेने धर्म थतो नथी, ने धर्म
वगर शांति के समाधि थती नथी.
तैयारीमां हता, तेणे रूपना जराक अभिमानथी देवोने कह्युं के अत्यारे तो हुं अलंकार
वगरनो छुं, पण हुं ज्यारे ठाठमाठथी अलंकृत थईने राजसभामां बेठो होउं त्यारे तेम
मारुं रूप जोवा आवजो. ज्यारे राजसभामां देवो आव्या अने रूप जोईने खेदथी माथुं
धुणाव्युं त्यारे चक्रवर्ती पूछे छे के अरे देवो! आम केम? शणगार वगरनुं शरीर हतुं ते
जोईने तो तमे आश्चर्य पाम्या हता, ने अत्यारे आटलो बधो शणगार छतां तमे
असंतोष केम बतावो छो! त्यारे देवो कहे छे–राजन्! ते वखते तारुं शरीर जेवुं निर्दोष
हतुं तेवुं अत्यारे नथी रह्युं, अत्यारे तेमां रोग अने सडानो प्रवेश थई चूक््यो छे. ए
सांभळतां ज राजा एकदम वैराग्य पामे छे. अरे, आवुं क्षणभंगुर शरीर! शरीरना
तोडीने अतीन्द्रिय चैतन्यने साधवा चाली नीकळ्या. देहथी भिन्नतानुं जेने भान नथी ने
देहनी क्रियाओने–देहनां रूपने पोताना माने छे ते देहातीत एवा सिद्धपदने के आत्माने
क््यांथी साधशे? भाई, सम्यग्दर्शन थयुं त्यां ज देहना रूपमदनो अभाव थई जाय छे.
समस्त परद्रव्योनी जेम शरीरने पण ते पोताथी जुदुं ज अनुभवे छे. आवा
अनुभववाळुं भेदज्ञान ते ज शांतिनो अने समाधिनो उपाय छे.
भव करतां तने शरम नथी आवती? स्वभाव समजवाना
उद्यममां तने थाक लागे छे ने परभावोमां तने थाक लागतो नथी,
पण अरे भाई! स्वभावने साधवो एमां थाक शा? एमां थाक न
होय.....एमां तो परम उत्साह होय....ए तो अनादिना थाक
उतारवाना रस्ता छे. मुमुक्षुने तो परभावमां थाक लागे ने
स्वभाव साधवामां परम उत्साह जागे.