साधक धर्मात्मा सम्यग्ज्ञानपणे परिणमतो थको रागादिने जाणे छे.
ज्ञातापणे बंने सरखा छे. एटले शुं? के
जेम केवळज्ञान लोकालोकनुं जाणनार छे, करनार नथी; तेम साधक सम्यग्ज्ञानीनुं
निरपेक्षपणे वर्ते छे. तेम साधकना सम्यग्ज्ञानमां, पहेलां ज्ञान ने पछी विकल्परूप
व्यवहार एम नथी, अथवा पहेलां रागरूप व्यवहार ने पछी ज्ञान एम पण नथी, बंने
एक साथे होवा छतां, ज्ञाननुं परिणमन रागथी निरपेक्ष वर्ते छे.
साधकनुं ज्ञान पण परथी निरपेक्ष. ज्ञान पूरुं ने अधूरुं एवा भेद होवा छतां
कर्तर्ृत्व नथी, तेम साधकना ज्ञानमां (ते ज्ञान अल्प होवा छतां–तेमां) रागनुं कर्तृत्व
नथी. फेर फक्त एटलो के केवळीने रागनुं परिणमन ज नथी, ने साधकने रागनुं
परिणमन छे, छतां ज्ञानमां तेनुं कर्तृत्व नथी; एटले ज्ञाननी जाती तो सर्वज्ञने अने
साधकने एकसरखी ज थई. चोथा गुणस्थानथी सम्यग्द्रष्टिने आवुं ज्ञान शरू थई
गयुं छे.