Atmadharma magazine - Ank 271
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४९२ आत्मधर्म : २३ :
नीचली दशामां ज्ञान साथे जराक विषमभाव वर्ते छे त्यां पण ज्ञान तेनाथी जुदुं
रहीने ज तेने जाणे छे.
स्वरूपमां ठरतां समभाव थयो त्यां ते समभावमां तन्मय रहीने ज्ञान तेने जाणे
छे.
रागरूप विषमभाव हतो त्यारे तेने जाण्यो खरो पण तेमां ज्ञान तन्मय न थयुं.
एटले जेम केवळीनुं ज्ञान रागथी जुदुं तेम साधकनुं ज्ञान पण रागथी जुदुं ज रहे छे.
अहो, ज्ञाननो आ एक न्याय समजे तो निश्चय–व्यवहारना बधा ऊकेल थई जाय.
साधकपणानी शरूआतथी मांडीने ठेठ केवळज्ञान सुधी ज्ञाननुं परिणमन रागथी
जुदुं ज छे. नीचली दशामां भले बंने एक साथे होय, पण जात तो बंनेनी जुदी छे. आ
चैतन्यजातनो प्रवाह रागथी जुदो ज छे. रागना प्रवाहमां चैतन्यनो प्रवाह भळी जतो
नथी. ज्ञाननी धारा शांतरसमय छे, ने रागनी धारा आकुळतारूप छे. शांतरसमय
ज्ञानधारामां राग नथी. एने जाणे भले पण ते पोताना चैतन्यप्रवाहथी च्यूत थतुं
नथी. ए चैतन्यधारानो प्रवाह ज वधीवधीने केवळज्ञान थाय छे. पहेलेथी ए ज्ञान
केवळज्ञाननी जातनुं हतुं तो वधीवधीने केवळज्ञानरूप थयुं.
चैतन्यनिधान बतावतां
गुरुदेव प्रमोदपूर्वक कहे छे के अहा,
जेना उपर नजर पडतां ज आत्मा
जागी ऊठे ने आनंदना ऊभरा वहे
एवुं चैतन्यतत्त्व तुं ज छो. तो हवे
तने जगतमां कोनी वांछा छे?
तारामां ज नजर कर. निजवैभव
उपर नजर करतां तुं न्याल थई
जईश.
हे जीव!
जो तारे आत्मार्थ साधवो
होय तो तुं जगतनी दरकार छोडी
देजे. तुं जगत सामे जोईने बेसी न
रहीश. जगतमां गमे तेम बने, तुं
तारा आत्महितना पंथे निःशंकपणे
चाल्यो जजे.