: २८ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९२
वियोग सहन करे छे,–ए रीते जीवन करतां ने पुत्र करतांय धनने वहालुं गणे छे. तो
आचार्यदेव कहे छे के भाई! आवुं वहालुं धन, जेना खातर तें केटलां पाप कर्या,–ते
धननो साचो उत्तम उपयोग शुं? तेनो विचार कर. स्त्री–पुत्र खातर के विषय–भोगो
खातर नुं जेटलुं धन खर्चीश, तेमां तो ऊलटुं तने पापबंधन थशे. माटे लक्ष्मीनी साची
गति तो ए छे के राग घटाडीने देव गुरु–धर्मनी प्रभावना, पूजा–भक्ति, शास्त्रप्रचार,
दान वगेरे उत्तमकार्योमां तेनो उपयोग करवो.
प्रश्न:– दीकरा माटे कांई न राखवुं?
उत्तर:– भाई, जो तारो पुत्र सपुत्र अने पुण्यवंत हशे तो ते तारा करतां सवायुं
धन प्राप्त करशे; अने जो ते कुपुत्र हशे तो तारी भेगी करेली बधी लक्ष्मीने
भोगविलासमां वेडफी नांखशे, ने पापमार्गमां उपयोग करीने तारा धननी धूळ करी
नांखशे; तो हवे तारे संचय कोने माटे करवो छे? पुत्रनुं नाम लईने तारो लोभ पोषवो
होय तो जुदी वात छे! बाकी तो–
पुत्र सपुत तो संचय शानो?
पुत्र कपुत तो संचय शानो?
माटे, लोभादि पापना कूवामांथी तारा आत्मानुं रक्षण थाय तेम कर; लक्ष्मीना
रक्षणनी ममता छोड ने दानादि वडे तारी तृष्णा घटाड. वीतरागी सन्तोने तारी पासेथी
कांई जोईतुं नथी, पण जेने तद्न राग वगरना स्वभावनी रुचि जागी, वीतराग
स्वभाव तरफ जेनुं परिणमन वळ्युं तेनो राग घट्या वगर रहे नहीं. कोईना कहेवाथी
नहि पण पोताना सहज परिणामथी ज मुमुक्षुने राग घटी जाय छे.
आ संबंधमां धर्मी गृहस्थना केवा विचार होय ते दर्शावतां श्री समन्तभद्रस्वामी
रत्नकरंड श्रावकाचारमां कहे छे के–
यदि पापनिरोधोन्यसंपदा किं प्रयोजनम्।
अथ पापास्रवोस्त्यन्यसंपदा किंप्रयोजनम्।।२७।।
जो पापनो आस्रव मने अटकी गयो छे तो मने मारा स्वरूपनी संपदा प्राप्त
थशे, त्यां बीजी संपदानुं मारे शुं काम छे? अने जो मने पापनो आस्रव थाय छे तो
एवी संपदानी मने शुं लाभ छे? जे संपदा मेळवतां पाप बंधातुं होय ने मारा
स्वरूपनी संपदा लूंटाती होय एवी संपदा शुं कामनी? आम बंने रीते संपदानुं
असारपणुं जाणीने धर्मी तेनो मोह छोडे छे. एकला लक्ष्मीनी लोलुपताना पापभावमां
जीवन वीतावी द्ये ने आत्मानी कांई दरकार करे नहि–एवुं जीवन धर्मीनुं के जिज्ञासुनुं
होय नहि. अहा, जेने सर्वज्ञनो महिमा आव्यो छे, अंतरद्रष्टिथी आत्माना स्वभावने
जे साधे छे, महिमा–