Atmadharma magazine - Ank 271
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: ३२ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९२
धर्मप्रसंगमां उत्साह तो आवतो नथी, धर्मने खातर धन वगेरेनो लोभ पण घटाडी
शकतो नथी, तो आचार्यदेव कहे छे के ते खरेखर धर्मी नथी पण दंभी छे, धर्मीपणानो ते
खाली दंभ करे छे. धर्मनो जेने खरेखर रंग होय तेने तो धर्मप्रसंगमां उत्साह आवे ज;
ने धर्मना निमित्तोमां जेटलुं धन खर्चाय तेटलुं ज सफळ छे–एम समजीने दान वगेरेमां
ते उत्साहथी वर्ते छे.
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(भेदविज्ञान जग्यो......ए राग)
सुद्ध सुछंद अभेद अबाधित भेद विज्ञान सुतीक्षन धारा,
अंतरभेद स्वभाव विभाव करे जड–चेतनरूप दुफारा;
सो जिन्हके उरमें उपज्यो, न रुचे तिन्हको परसंग सहारा,
आतमको अनुभौ करि ते हरखें परखें परमातम धारा.
शुद्ध स्वतंत्र एकरूप अबाधित भेदविज्ञानरूप
तीक्ष्ण करवत अंदर प्रवेश करीने स्वभाव–विभावने
अने जड चेतनने जुदा जुदा करी नांखे छे. आवुं
भेदविज्ञान जेना अंतरमां उपज्युं तेने परसंग के
परनो सहारो सुहावतो नथी–गमतो नथी, ते तो
आत्मानो अनुभव करीने ज प्रसन्न थाय छे अने
परमात्मपदनी धाराने पहिचाने छे.
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