: वैशाख : २४९२ आत्मधर्म : ४३ :
(१)
ऋषभदेवनो महाबलराजानो भव अने जैनधर्मना संस्कार
अनादि स्वयंसिद्ध एवा आ लोकनी वच्चे मध्यलोक छे; असंख्यात द्वीप–
समुद्रोथी शोभायमान आ मध्यलोकमां वच्चे जंबुद्वीप छे, अने जंबुद्वीपनी वचमां
जंबुद्वीपना मुगटसमान मेरूपर्वत शोभे छे.
मेरूपर्वतनी पूर्वे अने पश्चिमे ‘विदेहदेश’ छे; त्यांथी मुनिवरो कर्मरूपी मेलनो
नाश करीने हंमेशा विदेह (–देहरहित–सिद्ध) थया करे छे तेथी तेनुं ‘विदेह’ नाम सार्थक
छे. आ विदेहदेशोमां श्री जिनेन्द्ररूपी सूर्यनो सदाय उदय रहे छे, तेथी त्यां मिथ्या
मतरूपी अंधकार कदी व्यापतो नथी.
आवा पश्चिम विदेहमां एक गंधिल नामनो देश छे. तेनी मध्यमां शाश्वत
जिनमंदिरोथी सुशोभित एवो विजयार्द्धपर्वत छे, अने ते पर्वत उपर अलकापुरी
नामनी नगरी छे. अतिबल नामना विद्याधर ते नगरीना राजा छे. धर्मात्मा अतिबल
राजाने एक दिवस वैराग्य थतां, पोताना पुत्र महाबलने राज्य सोंपीने तेणे जिनदीक्षा
धारण करी.
(आ ‘महाबल’ ते ज आपणा चरित्रनायक ऋषभदेवनो जीव.)
राजा महाबलने चार मंत्रीओ हता–महामति, संभिन्नमति, शतमति अने
स्वयंबुद्ध. तेमांथी स्वयंबुद्धमंत्री शुद्ध सम्यग्द्रष्टि हता, ने बाकीना त्रणे मंत्रीओ
मिथ्याद्रष्टि हता.
एक दिवस महाबल राजाना जन्मदिवसनो उत्सव थई रह्यो हतो. ते वखते
सभामंडपमां राजाने अतिशय प्रसन्न देखीने महाबुद्धिमान स्वयंबुद्धमंत्रीए तेने
जैनधर्मनो उपदेश आप्यो अने कह्युं के “हे राजन्! आ राजलक्ष्मी वगेरे वैभव तो केवळ
पूर्वपुण्यनुं फळ छे; आ भव अने परभवमां आत्माना हितने अर्थे तमे जैनधर्मनुं सेवन
करो. स्वयंबुद्धमंत्रीनी ए वात सांभळीने बीजा त्रण मिथ्याद्रष्टि मंत्रीओमांथी एके कह्युं के
परलोक वगेरे कांई छे ज नहि; बीजाए कह्युं के आत्मा स्वतंत्र तत्त्व ज नथी, ए तो
संयोगी क्षणिक वस्तु छे; अने त्रीजाए कह्युं के आखुं जगत् शून्यरूप छे, आत्मा वगेरे कांई
छे ज नहीं. –परंतु स्वयंबुद्ध मंत्रीए अनेक युक्ति अने द्रष्टांतोद्वारा आत्मानुं अस्तित्व,
परलोकनुं अस्तित्व, आत्माना भला–बुराभावोनुं फळ वगेरे सिद्ध करी दीधुं; अने ए रीते
जैनधर्मनो अतिशय महिमा प्रसिद्ध कर्यो. स्वयंबुद्धना युक्तिपूर्वक वचनोथी समस्त
सभासदोने ए विश्वास थई गयो के आ जैन धर्म ज वास्तविक छे. आथी सभाजनोए
तेमज महाबल राजाए पण प्रसन्न थईने