मुनिवरो त्यांथी अंतर्हिंत थई गया.
कही संभळावी; अने जिनधर्मना सेवननो उपदेश आप्यो के हे राजन्! जिनेन्द्रदेवनो
कहेलो धर्म ज समस्त दुःखोनी परंपरानो छेदनार छे, माटे तेमां ज तमारी बुद्धि जोडो,
ने तेनुं ज पालन करो.
राज्यभार ऊतारीने परमपूज्य सिद्धकूट–चैत्यालयमां पहोंच्यो अने त्यां
सिद्धप्रतिमाओनुं पूजन करीने निर्भयपणे संन्यास धारण कर्यो; स्वयंबुद्धमंत्रीने
निर्यापकआचार्य बनावीने प्रायोपगमन संन्यास धारण कर्यो, ने सुखपूर्वक प्राण
छोडीने बीजा ईशानस्वर्गमां, श्रीप्रभविमानमां ललितांग नामनो देव थयो.
शुं छे! हुं कोण छुं! ने आ बधा कोण छे के जेओ दूरदूरथी आवीने मने नमस्कार करे
छे! क्षणभर ते विचारमां पडी गयो के हुं अहीं क्यां आव्यो छुं? क्यांथी आव्यो? आवुं
चिंतवन करतां तत्क्षणे तेने अवधिज्ञान प्रगट्युं. ते अवधिज्ञानवडे पोताना पूर्वभवना
स्वयंप्रभादेवी साथे कोई वार मेरुपर्वतना नंदनवनमां, कोईवार विजयार्द्ध पर्वत उपर,
कोईवार रुचकगिरि–कुंडलगिरि पर्वतो उपर, कोईवार मानुषोत्तर पर्वत उपर, तो
कोईवार नंदीश्वरना रत्नमय जिनबिंबोनां दर्शन करवा जतो हतो.–ए प्रमाणे स्वर्गमां
नीकट जाणीने