: ४६ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९२
ते देव भयभीत थईने शोक करवा लाग्यो. केमके हजी तेने सम्यग्दर्शन थयुं न हतुं. त्यारे
स्वर्गना बीजा देवोए धैर्य बंधावतां कह्युं के हे देव! पुण्यफळथी प्राप्त थयेला स्वर्गना
अभ्युदयमांथी जीवनुं पतन थवानुं निश्चित ज छे, माटे शोक न करो ने धर्ममां मन
जोडो; जीवने धर्म ज परम शरण छे. देवोना एम कहेवाथी ललितांगदेवे धैर्य धारण कर्युं
ने धर्ममां चित्त लगाडयुं; पंदर दिवस सुधी तेणे समस्त लोकना जिनमंदिरोनी पूजा करी,
त्यारबाद अच्युतस्वर्गना जिनप्रतिमाओनुं पूजन करतो करतो आयुना अंतसमये
सावधान चिते त्यांना चैत्यवृक्ष नीचे बेसी गयो, अने निर्भयपणे हाथ जोडीने
नमस्कारमंत्रनुं उच्चारण करतां करतां ते अद्रश्य थई गयो, तेनो देह विलय थई गयो.
(हवे वज्रजंघ अने श्रीमतीना भवनुं सुंदर वर्णन आवशे.)
विकल्प आत्माने नथी पकडतो,
शुद्धपरिणति ज आत्माने पकडे छे.
वीतरागमार्गनी शरूआत वीतरागभाव वडे ज थाय छे.
राग वडे वीतरागमार्गनी शरूआत थती नथी.
शुद्धपरिणति ते मोक्षमार्ग छे,
राग ते शुद्धपरिणतिथी जुदी जात छे.
वीतराग जिनदेवनुं फरमान ए छे के,
तुं तारा शुद्धात्माने अनुभवमां ले; बीजुं बधुं छोड.
मोक्षने माटे शुद्धात्मामां प्रवृत्ति ए एकज कर्तव्य छे,
अन्य कृत्यनो अभाव छे.
तुं निर्विकल्प–आनंदनो नाथ, अरे जीव!
तारे विकल्पनुं शुं काम छे?
संतोनी वात........टुंकी ने टच,
स्वमां वस......ने परथी खस.