: ५४ : आत्मधर्म : वैशाख : २४९२
‘ज्यारथी आत्मधर्ममां बालविभागनी शरूआत करी छे त्यारथी हुं धर्ममां वधु
रस लई रह्यो छुं.’–तमने धन्यवाद! अने हजी उत्साहथी खूब आगळ वधो.
खेडब्रह्माना गुणवंतलाल जैन पण पोतानो आनंदने उत्साह व्यक्त करे छे;
अने लखे छे के अमारा गाममां दि. जिनमंदिर नथी तोपण रोज भगवानने
याद करीने दर्शन करीए छीए. भाई, तमारा गाममां जिनमंदिर वेलुंवेलुं थाय–एवी
भावना भावीए. भगवानना विरहमां रोज भगवानने याद करो छो ते बहु सारुं छे.
कैलास एम जैन जामनगर (सभ्य नं. : ६६)
तमे लखी मोकलेली प्रार्थना अहीं छापी छे–
सर्वज्ञ प्रभु देवाधिदेव छो,
साधकना आधार प्रभु तमे छे;
भवसागरमां नाव अमारी
पाप–पुण्यमां डगमग डोले...
नावीक थई तमे पार उतारो.....साधकना०
तमे छो त्यागी, तमे विरागी,
अरज सूणजो हे वीतरागी,
जनम–मरण फेराने टाळो....साधकना०
जो तुम पधारो अम अंतरमां,
तो अमे जईए मुक्तिनगरमां,
आनंद माणीए अम स्वरूपमां....साधकना०
नरेश जे. जैन (सभ्य नं. ३००)
सम्यग्द्रष्टि वंदनानुं कवि दीपचंदजीनुं जे पद तमे ‘रत्नसंग्रह’ मांथी उतारीने
लखी मोकल्युं ते पद सारूं छे; लगभग आसो मासमां छापीशुं. परंतु भाईश्री, आवुं
पद ज्यांथी उतार्युं होय तेनुं नाम लखवुं जोईए, तथा तेमां फेरफार करीने पोतानुं नाम
घूसाडी देवुं न जोईए. साहित्यनी नीतिनो आ नियम सौए ध्यानमां राखवा जेवो छे.
तमारो प्रश्न–श्रीकृष्ण अत्यारे क््यां छे ने शुं करे छे?