Atmadharma magazine - Ank 271
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २४९२ आत्मधर्म : ५९ :
तमारा प्रश्नोना उत्तरमां बीजी घणी वातो लखी शकाय तेम छे, परंतु आ
विभागमां वधु विस्तार थई शके तेम नथी. वधु विस्तारथी लखवा बेसीए तो आखुं
पुराण लखवुं पडे. हा, रावण संबंधमां एक वात जाणवी जरूरी छे के तेणे एक
मुनिराज पासे एवी प्रतिज्ञा लीधी हती के कोई पण स्त्री उपर तेनी ईच्छा विरुद्ध
बळात्कार करवो नहि. अने, सीतानुं हरण कर्या पछी पण रावण महाराजाए पोतानी
ए प्रतिज्ञानुं द्रढपणे पालन कर्युं हतुं.
नीलाबेन, तरुणबेन अमदावाद, तमे मोकलेल धर्मनो कक्को तथा ११ थी २०
ना अंक अने काव्य मळेल छे. तेमांथी सारूं लागशे एटलुं लईशुं.
एक भाई–आपनो नाम वगरनो पत्र मळ्‌यो. पत्रकारत्वना नियम अनुसार
कोईपण पत्रमां के लेखमां लेखके पोतानुं नाम जणाववुं जरूरी छे. पछी,–भले ते प्रसिद्ध
न करवुं होय. बालविभाग प्रत्ये ममता बतावीने आपे लख्युं के बाळकोने तेनाथी
खूबज प्रेरणा मळे छे अने सभ्योनी संख्या जोतां बाळकोनुं खास पत्र नीकळे एवो
प्रसंग आवशे. भाई, आवा अध्यात्म जैनधर्ममां हजारो बाळको नानपणथी ज
रसपूर्वक भाग ल्ये, तेमना धार्मिक संस्कारो द्रढ थाय ने खास बाळको माटे ज धार्मिक
पत्रो काढवा पडे–एवी जागृति जैनसमाजमां आवे ए तो आपणी भावना छे; एवो
प्रसंग आवे एना जेवुं उत्तम शुं?
आत्मधर्म पाक्षिक बने तो वधु जागृतिनुं कारण थाय–एम आपे जणाव्युं; आ
भावना घणा जिज्ञासुओनी छे. अत्यारे जैनसमाजना मुख्य–मुख्य बधा प्रत्रो
साप्ताहिक छे. ए द्रष्टिए आत्मधर्मनुं मासिक प्रकाशन घणुं लांबुं पडे छे, पाक्षिक थाय
तो जरूर विशेष प्रचारनुं कारण थाय. आ बाबत माननीय प्रमुखश्रीनी पण भावना
हती. आ संबंधमां जिज्ञासुओए प्रमुखश्री, जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट–सोनगढने
लखवुं जोईए तेमनो आदेश थतां तुरत आत्मधर्मनुं पाक्षिक–प्रकाशन थई शके.
तमे शरीरने दुष्ट कहीने एनाथी चेतवानुं लख्युं परंतु भाईश्री, ए तो बिचारुं
जड छे; तेना अंगे आत्मा दुष्ट परिणाम करे तो तेमां एनो शो वांक? अने तेमां ज
रहीने आत्मा जो मोक्षनुं साधन करे तो पण ते कया ना पाडे छे? ए तो जे मोह
परिणाम करे तेने मोह परिणाममां निमित्त थाय ने जे मोक्षनुं साधन करे तेने मोक्ष
साधनमांय निमित्त थाय. शरीरमां रहीने जीवे शुं करवुं ते तो पोताने आधीन छे.