Atmadharma magazine - Ank 272
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २४९२ आत्मधर्म : ७ :
परम शांतिदातारी
अध्यात्मभावना
आत्मधर्मनी सहेली लेखमाळा
[लेख नं. ३६ अंक २७१ थी चालु]
भगवान श्री पूज्यपादस्वामीरचित ‘समाधिशतक’ उपर पू. गुरुदेवना
अध्यात्मभावनाभरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार.
वीर सं. २४८२ अषाड वद पांचम
(गाथा ६६ चालु)
धर्मी अंतरात्मा जाणे छे के हुं ज्ञान ने आनंद स्वरूप छुं, आ जड शरीर हुं नथी.
देहना नाशथी मारो नाश नथी. जेम शरीरने वस्त्रनी साथे एकतानो संबंध नथी तेम
आत्माने देहनी साथे एकतानो संबंध नथी. जेम वस्त्र जेम वस्त्रना फाटवाथी शरीर
फाटतुं नथी, वस्त्र नवुं आवतां शरीर नवुं थतुं नथी, वस्त्रनो नाश थतां शरीरनो नाश
थतो नथी के वस्त्रना रंगथी शरीर रंगातुं नथी; तेम चैतन्यमूर्ति आत्माने आ शरीर
तो उपरना वस्त्र जेवुं छे; ते शरीरनी जीर्णता थतां आत्मा जीर्ण थतो नथी, शरीर नवुं
थतां आत्मा नवो थतो नथी, शरीरना नाशथी आत्मानो नाश थतो नथी, के शरीरना
रंगथी आत्मा कांई काळो–रातो रंगरूप थतो नथी; आत्मा तो शरीरथी जुदो ज रहे छे.
शरीर छूटी जाय छे पण ज्ञान कदी आत्माथी छूटुं पडतुं नथी, माटे जे जुदुं पडे ते
आत्मानुं शरीर नहि; आ जड शरीर आत्मानुं नथी. आत्मा चैतन्यशरीरी छे, ते
चैतन्यशरीर आत्माथी कदी जुदुं पडतुं नथी. आवी भिन्नताना भानमां धर्मीने शरीरना
वियोगमां दुःख थतुं नथी, अर्थात् मरणनो प्रसंग आवतां ‘हुं मरी जईश’ एवो
मरणनो भय तेने थतो नथी. ते जाणे छे के मारुं चैतन्यशरीर अविनाशी छे, वज्रपात
थवा छतां मारा चैतन्य–शरीरनो विनाश थतो नथी, मारूं चैतन्य–शरीर अवध्य छे. ते
कोईथी हणी शकातुं नथी. आवी द्रष्टिमां धर्मात्माने मरणनी बीक नथी. जगतने
मरणनी बीक छे, पण ज्ञानीने तो चैतन्यलक्षे समाधि ज छे......एने तो आनंदना
महोत्सव मंडाय छे. जीवनमां जेणे जुदा चैतन्यनी भावना भावी हशे तेने मरण टाणे