Atmadharma magazine - Ank 272
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: जेठ : २४९२ आत्मधर्म : ९ :
डगतो नथी......ने अंते विद्याने साधे छे. विद्या साधवा माटे ध्याननी आवी एकाग्रता
छे. जुओ, साधारण लौकिक विद्या साधवा माटे पण आटली द्रढता, तो आत्माने
साधवा माटे केटली द्रढता होय!! शास्त्रकार तो कहे छे के अहो! जेवी ध्याननी द्रढता
आ विद्या साधवा माटे करी तेवी द्रढता जो मोक्षने माटे आत्मध्यानमां करी होत तो
क्षणमां ते आठे कर्मो भस्म करीने केवळज्ञान अने मोक्षदशाने पामी जात. आ रीते
आत्मामां एकाग्रताना अभ्यासवडे परम समाधि थाय छे.
अहा, मुनिओ संसारनी ममता छोडीने आत्मामां एकाग्रतावडे निजपदमां झुले
छे, तेमने परम समाधि वर्ते छे. सिंह भले शरीरने फाडी खातो होय के शांत थईने
भक्तिथी जोतो होय–पण मुनिने समभावरूप समाधि छे. सम्यग्द्रष्टिने चैतन्य
स्वभावनी वीतरागीद्रष्टि थई छे तेटली सम्यग्दर्शनरूप समाधि छे, पण जेटला रागद्वेष
छे तेटली असमाधि छे, तेटली शांति लूंटाय छे. अज्ञानीने तो वीतरागी समभावना
परम सुखनी खबर ज नथी, तेणे समाधि सुख चाख्युं नथी.
अहा, मोक्षने साधनारा मुनिओनी समाधिनी शी वात! मोटा मोटा राजकुमारो
पण मुनिओनी एवी भक्ति करे के अहा! धन्य! धन्य! तारा अवतार! आप मोक्षने
साधी रह्या छो. तिष्ठ तिष्ठ कहीने आमंत्रण करे अने पग लूछवा माटे बीजुं वस्त्र न
होय त्यां ते राजकुमार पोताना उत्तम वस्त्रथी ते मुनिना चरण लूछे छे. आवी तो
भक्ति! ते राजकुमार पण समकिती होय. हजी तो पचीस वर्षनी ऊगती जुवानी होय
छतां गुणना भंडार होय ने वैराग्यना रंगे रंगायेला होय.....अहो! अमे आवा मुनि
थईए ए दशाने धन्य छे!! देहने स्वप्नेय पोतानो मानता नथी.
श्रेणीकराजा क्षायिक समकिती हता....तेओ पोताना राजभंडारना रत्नोने तो
पत्थर समान मानता हता, ने मुनिओना रत्नत्रयने महा पूज्य रत्न मानीने तेमनो
आदर करता हता. योगी–मुनिओना अतीन्द्रिय आनंद पासे विषयभोगोने विष जेवा
मानता हता. “भगवान पधार्या” एवी वधामणी ज्यां माळीए आपी त्यां एक
राजचिह्न सिवाय शरीर उपरना करोडोनी किंमतना बधा दागीना तेने वधाईमां आपी
दीधा....ने सिंहासन उपरथी तरत ऊभा थईने भगवाननी सन्मुख सात पगलां जईने
नमस्कार कर्या; आवी तो सर्वज्ञपरमात्मा प्रत्ये भक्ति अने बहुमान! ते श्रेणीकराजा
भविष्यमां तीर्थंकर थवाना छे. पहेलां मुनिनी विराधना करेली तेथी नरकनुं आयुष्य
बंधाई गयुं, ने तेथी अत्यारे नरकमां छे. छतां त्यांपण सम्यग्दर्शनना प्रतापे देहथी भिन्न
चैतन्य तत्त्वनुं भान वर्ते छे. आ देह हुं नहि, हुं तो चैतन्यस्वरूप आत्मा छुं–एवुं भेद–