Atmadharma magazine - Ank 272
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म : जेठ : २४९२
* उल्लास एम. जैन (स. नं. १२०) पूछे छे के–तत्त्व समजवा माटे कया
शास्त्रोनो अभ्यास आवश्यक छे?
उत्तर:– भाईश्री, जैनसंतोए रचेला बधा ज शास्त्रो तत्त्व समजवा माटे ज
रचायेलां छे. गुरुगमे साचा लक्षपूर्वक कोई पण जैनशास्त्रनो अभ्यास करवाथी
वीतरागी तत्त्वज्ञाननुं पोषण थाय छे. एटले कोई अमुक ज शास्त्रना अभ्यासनो
नियम नथी; आम छतां प्राथमिक तत्त्वज्ञानना अभ्यासीनी द्रष्टिए जैन बाळपोथी;
छहढाळा, द्रव्यसंग्रह, सिद्धांतप्रवेशिका, तत्त्वार्थसूत्र, मोक्षशास्त्र, मोक्षमार्गप्रकाशक वगेरे
शास्त्रो उपयोगी छे. समयसार, परमात्मप्रकाश वगेरे अध्यात्मशास्त्रोनुं ज्ञान तत्त्व
समजवामां बहु उपयोगी छे. बीजा घणाय शास्त्रो छे. कोई वार आपणा जैन सन्तो
अने जैनशास्त्रोनो परिचय करावीशुं.
* वीछींयाथी जयश्रीबेन (स. नं. ३४६) पूछे छे के–मोक्षमां खावा–पीवानुं
वगेरे नथी, तो त्यां सुख कई रीते होई शके?
उत्तर:– सुख ए आत्मामां छे, खावा–पीवामां नथी, एटले ज्यां आत्मा होय
त्यां तेनुं सुख होय. सिद्धभगवंतोने जे सुख छे ते पोताना आत्माथी ज थयेलुं छे, ते
कोई बीजी वस्तुवडे उत्पन्न थयेलुं नथी. सुख ते आत्मानो स्वभाव छे. अत्यारे आपणे
पण जो आत्माना स्वभावने अनुभवमां लईए तो आपणने पण सिद्धप्रभु जेवुं सुख
अनुभवमां आवे. ए सुख एवुं छे के खावुं–पीवुं वगेरे कोई पण बाह्यवस्तुमां एनी
जराय झांखी पण नथी, आत्माना आवा अतीन्द्रिय सुखने ओळखतां सम्यग्दर्शन थाय
छे एम भगवान कुंदकुंदस्वामीनुं वचन छे.
* ज्योतिबेन जैन (स. नं. १प७) पूछे छे के:–
आपणे सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, अने सम्यग्दर्शन प्रगट करवा माटे शुं करवुं
जोईए?
उत्तर:– आ रत्नत्रयनी प्राप्ति केम थाय–ते बताववा माटे ज हजारो–लाखो
शास्त्रोनी रचना संतोए करी छे. कुंदकुंदस्वामी रत्नत्रयनी प्राप्तिना उद्यमनुं स्वरूप
दर्शावतां (समयसार गा. १८मां) कहे छे के मोक्षार्थी जीवे प्रथम तो प्रयत्न वडे जीव–
राजाने जाणवो के परभावोथी भिन्न ज्ञाननी अनुभूतिमात्र हुं छुं; ए ज्ञाननी साथे
श्रद्धा करवी के ‘आ ज हुं छुं;–पछी ते जाणेला ने श्रध्धेला आत्मामां लीन