: २२ : आत्मधर्म : जेठ : २४९२
वस्तु छे, ते मनना विकल्पथी पण पकडातो नथी तो पछी स्थूळ जड साधनो वडे तो
क््यांथी पकडाय? ए तो अतीन्द्रिय ज्ञानवडे ज जाणी शकाय तेवो छे. त्रीजुं–आधुनिक
विज्ञाने वनस्पति वगेरेमां ‘जीवन’ स्वीकार्युं छे. एटले के शरीर सिवायनुं बीजुं कोई
विजातीय तत्त्व छे. जडथी भिन्न ज्ञानादि निजस्वरूपमां आत्मा छे; जिनदेवे कहेला
वीतरागीविज्ञानवडे तेने स्पष्ट जाणी शकाय छे, अनुभवी शकाय छे. श्रीमद् राजचंद्र कहे
छे:–
“आत्मानी शंका करे.....आत्मा पोते आप;
शंकानो करनार ते, अचरज एह अमाप.”
देहथी भिन्न चैतन्यस्वरूप आत्मानी सिद्धि बीजा घणा प्रकारे थई शके छे. ते
सत्संगथी अने शास्त्रना अभ्यासथी समजी शकाय तेवुं छे.
देहथी भिन्न आत्मानुं स्वरूप कया प्रकारे छे तेना विचार करीने दरेक बाळकोए
(तेमज मोटाओए पण) बराबर समजवुं अत्यंत जरूरी छे. ए आपणा जैनधर्मनी
मूळ विद्या छे.
मुंबईथी अरूलताबेन जैन (स. नं. प६) पूछे छे–
प्रश्न:– ‘धर्मने भूलवाथी’ जीव संसारमां घणां दुःख पामे छे,–शा माटे?
उत्तर:– बहेन, तमारा प्रश्नना पहेला बे शब्दोमां ज तमे तमारा प्रश्ननो जवाब
लखेलो छे. छतां बीजा शब्दोमां जवाब जोईतो होय तो–
“ जे स्वरूप समज्या विना, पाम्यो दुःख अनंत”
अने हवे–“समजी आत्मस्वरूपने, करुं ए दुःखनो अंत.”
प्रश्न:– सम्यग्द्रष्टि जीव जगतना वैभवथी मोहित थता नथी, –शा माटे?
उत्तर:– केमके जगतना वैभवमां आत्मानुं अंशमात्र सुख तेमणे जोयुं नथी; ने
चैतन्यना अपार निज वैभवने जाणीने तेना परम सुखनो स्वाद माण्यो छे!–ते हवे
बीजे केम मोहाय!
प्रश्न:– मनुष्यने ज्यारे दुःख पडे छे त्यारे तेनामां समता अने द्रढता केम आवी
जाय छे?
उत्तर:– जो के बधाने माटे एम नथी बनतुं, परंतु जे जीव वैराग्यवंत होय,
जेना हृदयमां आत्मार्थ होय ते जीव तेवा प्रसंगे जगतनुं असार स्वरूप विचारीने